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अदृश्य आशीष: बहू, ज़रा मेरा चश्मा तो साफ़ कर दो
बच्चों के प्रति स्नेह रखने वाले माता पिता के समर्पण एवं त्याग से जुड़ी हुई एक बोध कथा जो भटके हुए बच्चों का मार्ग प्रशस्त करती है
जल्दी -जल्दी घर के सारे काम निपटा, बेटे को स्कूल छोड़ते हुए ऑफिस जाने का सोच, घर से निकल ही रही थी कि फिर पिताजी की आवाज़ आ गई,
“बहू, ज़रा मेरा चश्मा तो साफ़ कर दो!”
और बहू झल्लाती हुई..
सॉल्वेंट ला, चश्मा साफ करने लगी। इसी चक्कर में बेटा स्कूल में और खुद आज फिर ऑफिस देर से पहुंची।
गाहे बगाहे पिताजी की यूँ, घर से निकलते हुए, पीछे से आवाज देने की आदत, बहु को अच्छी नही लगती थी। पर जानती थी कि पलँग से न उठ पाने की बावजूद पिताजी पूरे दिन में उसे यही एक दो काम ही तो कहते थे। काम छोटा सा था पर आफिस जाने की भी तो जल्दी होती थी सुबह सुबह। एक दिन पति से चर्चा की। पति की सलाह पर अब वो सुबह उठते ही पिताजी का चश्मा साफ़ करके रख देती, लेकिन फिर भी घर से निकलते समय पिताजी का बहू को बुलाना बन्द नही हुआ। दिन बीते एक समय वो आया कि समय से खींचातानी के चलते अब बहू ने पिताजी की पुकार को अनसुना करना शुरू कर दिया ।
एक दिन ऑफिस की छुट्टी थी तो बहू ने सोचा, क्यों न घर की साफ- सफाई कर लूँ । अचानक, पलँग से नीचे गिरी पिताजी की डायरी हाथ लग गई। उसे पलँग पर उठाकर रखते हुए, उत्सुकता हुई, कि देखूं तो, पिताजी सारा दिन क्या लिखते रहते है। यही सोचकर यूँही खोल दिया एक पन्ना,उस पन्ने पर लिखा था-
ॐ
दिनांक 23/2/15
मेरी प्यारी बहु,
आज की इस भागदौड़ भरी ज़िंदगी में, घर से निकलते समय, बच्चे अक्सर बड़ों का आशीर्वाद लेना भूल जाते हैं। बस इसीलिए, जब तुम चश्मा साफ कर मुझे देने के लिए झुकती तो मैं मन ही मन, अपना हाथ तुम्हारे सर पर रख देता । वैसे मेरा आशीष सदा तुम्हारे साथ है बेटा.
आंखे नम हो गयी। बस अगले दिन से ही बहु-ससुर का रिश्ता मानो पिता-पुत्री में बदल गया। अब पांच मिनट पहले तैयार होकर, बेटे को स्कूल छोड़ने के लिए, पिताजी की आवाज से पहले ही बहु चश्मे को साफ कर देती, पीने के पानी के जग उनके पलंग के सिरहाने रखती। जाते समय,लाड प्यार से दो चार वाक्यो में सारे दिन की हिदायते देती। कल उनके फल या दवाई न खाने का उलाहना और अंत मे “अच्छा बाबूजी आफिस को देरी ही रही है, चलो बेटा बाबूजी को bye बोलो” कहकर घर से निकलती।
बूढ़ी हड्डियों में न जाने कैसे ताकत सी आने लगी। दवाई वही थी पर सेहत में सुधार दस गुना होने लगा था। पिताजी स्वस्थ होने लगे थे परन्तु अचानक एक दिन हृदय गति रुक जाने से स्वर्ग सिधार गए। उनके अंत समय मे, उनके मृत देह के चेहरे पर संतुष्टि के भाव की भी पूरे परिवार में खूब चर्चा हुई थी। आज पिताजी को गुजरे ठीक 2 साल बीत चुके हैं। आज भी बहु रोज घर से बाहर निकलते समय पिताजी का चश्मा साफ़ कर, उनके टेबल पर रख दिया करती हूँ। उनके अनदेखे हाथ से मिले आशीष की लालसा में। आज भी सुबह घर से निकलते हुए, न जाने क्यों ऐसा लगता है कि अभी आवाज आएगी-
” बहु, जरा मेरा चश्मा तो साफ कर दे “
माता पिता का अदृश्य आशीष ही ईश्वर की कृपादृष्टि है। जीवित मातापिता की सेवा, मरणोपरांत किये गए पितृकर्म से कहीं अधिक उत्तम है। जीवन में हम बहुत कुछ महसूस नहीं कर पाते और जब तक महसूस करते हैं, तब तक वे हमसे बहुत दूर जा चुके होते हैं “आइये इन बूढ़े वृक्षो को जलरूपी स्नेह तथा सेवारूपी खाद से संजोकर फिर से युवा,स्वस्थ तथा हराभरा करने का प्रयास करें”.
जो प्राप्त है-पर्याप्त है
जिसका मन मस्त है
उसके पास समस्त है!!