जगमगाते गहनों की पौराणिक गाथा एवं उसकी रोचक शोधपरक जानकारी

भारत के मसाले और अमूल्य धातुओं की समृद्धता पूरे विश्व में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखती है। यहां खान-पान के साथ-साथ गहनों के प्रति लगाव प्रसिद्ध है। पुरुषों के साथ-साथ महिलाओं की गहनों, जेवर, आभूषणों, अलंकारों के प्रति आसक्ति की एक अलग ही कहानी है।

इन आभूषणों ने मानव जाति व समाज में अपनी अलग और महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। चाहे वह सोना-चांदी हो, हीरे हों, रूबी, नीलम, पन्ना, मोती कोई भी रत्न या धातु हों। इनकी चकाचौंध ने हमेशा सभी को आकर्षित किया है। भारतीयों में तो यह प्रतिष्ठा का प्रश्न भी रहता है।
परमेश्वर द्विरेफ ने ‘युगसृष्टा प्रेमचंद’ के पृष्ठ 24 में कहा है-
कौन देखता है खाने को, घर में चाहे भूखा रह ले,
आभूषण के बिना न इज्जत, सब कुछ-सब कुछ पीछे, गहना पहले।
प्रेमचंद का अपनी कालजयी कृति ‘गबन’ में कहना था- ‘गहनों का मरज न जाने इस गरीब देश में कैसे फैल गया? जिन लोगों को भोजन का ठिकाना नहीं, वे भी गहनों के पीछे जान देते हैं’।
इन अमूल्य धातुओं में सभी की जान बसी होती है। इन सभी में हीरे का मोह सबसे ज्यादा होता है। भारत में चौथी शताब्दी में सबसे पहला हीरा मिला था। 18वीं शताब्दी तक लोगों को लगता था कि भारत दुनिया में हीरे का एकमात्र स्रोत है। लेकिन फिर 1866 में दक्षिण अफ्रीका में 21 कैरेट से अधिक का एक हीरा मिला, जो आने वाले वर्षों में हीरे का प्रमुख आपूर्तिकर्ता बन गया।
1950 के दशक में वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं में हीरे को सफलतापूर्वक विकसित करने में सक्षम थे जिससे हीरे के खनन के लिए एक पर्यावरण अनुकूल सस्ता और त्वरित विकल्प प्रदान किया गया था। आज सिंथेटिक हीरे का बाजार बोझिल है और प्राकृतिक हीरे के लिए खतरा है।
डॉ. मोतीचंद्र ने अपनी पुस्तक ‘प्राचीन भारतीय वेशभूषा’ में प्राचीनकाल के स्त्री-पुरुषों के परिधानों और अलंकारों का प्रामाणिक वर्णन प्रस्तुत किया है। अजंता के भित्तिचित्रों, एलोरा, खजुराहो, कोणार्क, सांची, भरहुत और कलचुरी की मूर्तियों तथा प्राचीन संस्कृत ग्रंथों के अध्ययन से पता चलता है कि प्राचीनकाल के स्त्री-पुरुषों के मन में अपने शारीरिक सौंदर्य और आभूषणों के लिए अत्यधिक ललक थी।
वाल्मीकि रामायण में वनगमन के समय श्रीराम तो अपना शिरोभूषण ‘मौलि-मणि’ उतारकर जटा-जूट बांध लेते हैं, लेकिन सीताजी अपने गहने नहीं उतारतीं। गंगाजी पार करने के बाद वे एक मुद्रिका तो केवट को दे देती हैं और रावण द्वारा अपहरण किए जाने पर अपने शेष आभूषण किष्किंधा के समीप गिरा देती हैं। उन आभूषणों को देखकर लक्ष्मण कहते हैं-
‘नाहं जानामि केयूरे नाहं जानामि कुण्डले।
नूपुरं त्वभि जानामि नित्यं पादाभिवन्दनात्।’
(मैं उनके बाजूबंदों को नहीं पहचानता, न ही उनके कुंडलों को पहचानता हूं। हां, नित्य प्रति उनके चरणों की वंदना करने के कारण उनके नूपुरों को पहचानता हूं।)

गहनों के सबसे पुराने टुकड़े लगभग 1,00,000 साल पहले के थे, जो सिर्फ मोतियों की माला के थे। सजावटी और सजावटी प्रयोजनों के रूप में परोसे जाते थे। सबसे पुराने गहने कार्बनिक थे।
महाभारत के वनपर्व के 233वें अध्याय में सत्यभामा को दिए गए उपदेश में द्रौपदी कहती हैं- ‘महाराज युधिष्ठिर की जो दासियां थीं, वे हाथों में शंख की चूड़ियां, भुजाओं में बाजूबंद और कंठ में सुवर्ण का हार पहनकर बड़ी सज-धज के साथ रहती थीं। उनकी मालाएं एवं आभूषण बहुमूल्य थे। उनकी अंगकांति बहुत सुंदर थी। वे चंदन मिश्रित जल से स्नान करती थीं तथा मणि व सुवर्ण के गहने पहना करती थीं।’

संभव है कि दासियों के बारे में यह कथन अतिशयोक्ति हो लेकिन इतना तो स्पष्ट है कि कुलीन स्त्रियां ऐसे आभूषण अवश्य धारण करती थीं। 20वीं शताब्दी की शुरुआत में मोती की खेती की प्रक्रिया व्यावसायिक आधार पर शुरू हुई जिससे मोती की खेती संभव हो गई। इससे मोती आसानी से सभी के लिए सुलभ हो गए। आज भी बाजार में मिलने वाले लगभग सभी मोती सुसंस्कृत मोती हैं। इसके अलावा वे एकमात्र रत्न हैं, जो एक जीवित जानवर से आते हैं।

आभूषणों में इतनी विविधताएं हैं कि वर्णन मुश्किल है। फिर भी भारतीय आभूषणों में कुछ प्रधान एवं कुछ लोक प्रसिद्ध आभूषण निम्नलिखित हैं, जिनके बिना भारतीय इतिहास व भारतवर्ष का गौरव अधूरा है-

मुक्ताजाल- इसे रत्नावली या रत्नांजलि भी कहते हैं। यह मोतियों की लड़ी है, जो सिर के बालों पर आगे से पीछे तथा ललाट पर सामने से बालों को कसे रहती है। अजंता के भित्तिचित्रों में इसे देख सकते हैं। आजकल इसकी जगह सोने की एक लड़ी मांग के बीच में तथा दूसरी ललाट के बीच से दोनों तरफ रहती है। इसी से मांग-टीका लटकता है।


मांगटीका या सितारा- राजस्थान में रखड़ी या घुंडी कहते हैं।

चूड़ामणि- यह बालों के मध्य में कमलपुष्प की तरह होती है।

सेलड़ी- वेणी के छोर से लटकने वाला शंक्वाकार आभूषण जिसमें छोटी घंटियां लटकती हैं।

नासामुक्ता- नाक के बाईं तरफ के छेद में पहनी जाती है। आजकल हीरे वाली कील का चलन है।

नथ- कहीं-कहीं नथनी भी कहते हैं। यह सोने के तार का तीन अंगुल व्यास का वलयाकार गहना है।

त्रिकंटक- यह कान का आभूषण है। 2 मनकों के साथ पन्ने को जड़कर बनता है। हर्षचरित में हर्ष के जन्मोत्सव पर नृत्य करती राजमहिषियां त्रिकंटक पहने थीं।

कनक कमल- कान का आभूषण, उल्टे कमल के आकार का जिसे कानों में फंसाया जाता था। (मेघदूत)

कुंडल- सर्वप्रिय कर्णाभूषण, मणिजटित या केवल सुवर्ण के पुरुष भी पहनते थे। आजकल भी कुछ नवयुवक पहनते हैं।


कर्णिका- झुमकी।


बाली- इसे कर्णवतंस भी कहा गया है। यह छोटी या 2 अंगुल व्यास की गोलाकार होती है। आजकल तो बड़ी-बड़ी बालियों का चलन है।


मौलि- शिरोभूषण (राम के संदर्भ में उल्लेख हो चुका है।)


मुकुट, किरीट- जनसाधारण के लिए नहीं, राजाओं व रानियों के लिए।


मुक्ताकलाप- एक लड़ी की मोतियों की माला। इसे एकावली भी कहा गया है। (कुमारसंभव में पार्वती के स्तनों पर सुशोभित)


इंद्रनील मुक्तामयी- मोतियों का हार जिसमें बीच-बीच में इंद्रनील होता है।


निष्क- यह स्वर्ण मनकों से निर्मित हार है लेकिन इसे गूगल के एक लेख में सिक्कों वाला हार बताया गया है।


हेमसूत्र (गले की चेन)- यह बहुत प्रचलित आभूषण है। इसी को छोटे-छोटे मूल्यवान रत्नों से अलंकृत करके तथा सुवर्ण का मणिजटित या सादा सजावटी लटकन (पेंडेंट) जोड़कर ‘मंगलसूत्र’ बना दिया गया है।


कंठा- यह चपटे भारी गोल या चौकोर सोने के बीड्स का गहना है। यह गले को घेरे रहता है, नीचे नहीं लटकता।


हार- यह स्त्रियों का सबसे प्रिय आभूषण है और इसकी इतनी किस्में हैं और उनके इतने नाम हैं कि उन्हें आभूषणों के व्यापारी भी नहीं जानते। वृहत्संहिता में 4 हाथ की 1008 मनकों की माला को इंदुछंद, 2 हाथ लंबी 504 मनकों के हार को विजयछंद, 108 मनकों की माला को हार, 81 मनकों की माला को देवछंद और 64 मनकों की माला को अर्द्धछंद कहा गया है। वासुदेव शरण अग्रवाल ने एक स्त्री की मृण्मूर्ति के गले में 27 मनकों की माला को ‘नक्षत्रमाला’ कहा है। हार जब लंबा हो तो उसे लंबनम् की संज्ञा दी गई है।


विजयंतिका- मोतियों और मणियों से जड़ा गले का गहना। (आजकल कुंदन कहते हैं।)


फलक हार- सोने की माला में बराबर दूरियों पर गुंथे हुए 3-3 या 5-5 रत्नों के फलक वाले हार का नाम।


हंसुली- यह गले को घेरने वाला गहना है। सामने मोटा और पीछे की ओर क्रमश: पतला होता जाता है। देहात की गरीब औरतें चांदी की हंसुली पहनती हैं। इधर हाल में कुछ अभिनेत्रियों ने फिर इसे पुनर्जीवित किया है।


केयूर (बाजूबंद)- तरह-तरह के बाजूबंदों का उल्लेख मिलता है। उनमें मायूर-केयूर भी था जिस पर मोर की आकृति बनी होती थी।


अंगद- सोने का सर्पाकार कड़े जैसा भुजाओं में पहना जाने वाला आभूषण जिसे स्त्री-पुरुष दोनों पहनते हैं।


वलय- कलाई में पहनने का कड़ा।


कंकण- कलाइयों में पहने जाने वाला। चूड़ियों के अगल-बगल तथा उनके बीच में कंगनों की शोभा और बढ़ जाती है।


अंगुलीय (मुद्रिका)- अंगूठियां रत्नजटित सुवर्ण की या केवल सुवर्ण की होती हैं। तक्षशिला से सोने, चांदी, तांबे, लोहे, पत्थर और शंख की तमाम मुद्रिकाएं मिली हैं।


चूड़ियां- सोने, हाथीदांत, शंख और शीशे की।


मेखला- यह कई लड़ियों वाली होती है और कमर पर नाभि के नीचे बांधी जाती है। इसे कमरबंद, करधनी या किंकिणी भी कहते हैं। इससे छोटी-छोटी घंटियां भी जुड़ी रहती हैं। मानस में पुष्प वाटिका प्रसंग में ‘कंकन किंकिनि नूपुर धुनि सुनि’ वाली चौपाई प्रसिद्ध ही है।


नूपुर- चांदी के, सुहागिन स्त्रियों का चिह्न।


सांकल या छागल- चांदी के तारे छल्ले। दोनों पैरों में कई-कई पहने जाते। इन्हें छाड़ा भी कहते हैं।


मंजीर- पैरों में पहनी जाने वाली पाजेब, जो छोटी घंटियों ये युक्त होती है। (बिहारी लाल ने विपरीत-रति वाले दोहे में ‘करै कोलाहल किंकिनी गह्यो मौन मंजीर’ लिखकर रसिकजन का मनोरंजन किया है।)


वैकक्ष- 2 लंबी लड़ियां मोतियों की वक्ष पर एक-दूसरे को काटती हुई।


कहां तक समझें व गिनाएं? नकबेसर, खुटिला, खुभी, झलमली, हुमेल, पहुंची, अनौटा, झेला आदि इतने विविध नामों वाले आभूषण हैं कि उनके बारे में यह भ्रम हो जाता है कि कौन किस अंग में पहना जाता है।
चलते-चलते केशवदास की नायिका का दर्शन करते हैं, जो नख से शिख तक आभूषणों से लदी दीपमालिका जैसी जगमग कर रही है-
‘बिछिया अनौट बांके घुंघरू जराय जरी
जेहरि छबीली छुद्रघंटिका की जालिका।
मूंदरी उदार पौंउची कंकन वलय चूरी
कंठ कंठमाल हार पहरे गुणालिका।
बेणीफूल सीसफूल कर्णफूल मांगफूल
खुटिला तिलक नकमोती सोहै बालिका।
केसौदास नीलबास ज्योति जगमग रही
देह धरे स्याम संग मानो दीपमालिका।।’ (कविप्रिया से)