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INA vs British : पढ़िए विश्व के सर्वश्रेष्ठ कानूनी बहसों में से एक माने जाने वाले वकालती तर्को की कहानी
यह किस्सा आज़ादी की लड़ाई के उन किस्सों में से एक है, जो शायद हमारे दिमाग से धूमिल हो चुकी हो, लेकिन याद करने पर दिलों में जोश भर देती है। यह कहानी है उस हीरो की, जिसने एक ऐसी कानूनी लड़ाई लड़ी जिसका उदाहरण विश्वभर में दिया जाता है।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद ब्रिटिश सरकार ने आज़ाद हिन्द फौज के तीन पूर्व अफसरों के खिलाफ ट्रायल की प्रक्रिया शुरू की। इन अधिकारीयों ने जापान के साथ मिलकर राष्ट्र की आज़ादी के लिए लड़ाई लड़ी थी। इसका पहला और सबसे महत्वपूर्ण चरण 5 नवम्बर, 1945 को दिल्ली के लाल किले के भीतर आरंभ हुआ।
इस प्रसिद्ध सैन्य परिक्षण में कटघरे में तीन लोग थे – शाहनवाज़ खान, प्रेम सहगल व गुरबक्श ढिल्लों। ये तीनों आज़ाद हिन्द फौज के द्वितीय टायर के कमांडर थे जो ब्रिटिश इंडियन आर्मी को छोड़ कर गए थे। इन तीनों पर भारतीय दंड संहिता की धारा 121 के तहत राजद्रोह का आरोप लगाया गया था।
भारतीय दंड संहिता की धारा 302 के अंतर्गत ढिल्लों पर हत्या का आरोप व खान एवं सहगल पर हत्या के इरादे से अपहरण करने के आरोप लगे। इन तीनों की ओर से दलील पेश करने वाले थे तेज बहादुर सप्रू, जवाहरलाल नेहरू, डॉक्टर के एन काटजू व कांग्रेस के भूलाभाई देसाई जो चीफ डिफेंस काउंसिल (CDC) भी थे। इन्हें यह केस मिलिट्री ट्रिब्यूनल के समक्ष पेश करना था जिसमें वरिष्ठ ब्रिटिश अधिकारी शामिल थे।
एडवोकेट जनरल सर नौशीर्वान इंजीनियर ने कोर्ट के सामने जो पेश किया उससे हम अभियोजन के तर्को का सारांश कुछ यूं निकाल सकते हैं :
अभियोजन पक्ष यह कहेगा कि आरोपी जिस भी दलील को पेश करे या कानूनी तौर पर अपने कार्य को उचित ठहराए, उन्हें बचाया नहीं जा सकता है। विद्रोह के लिए विद्रोहियों के साथ या दुश्मनी के लिए दुश्मनों के साथ मिलना एक व्यक्ति को राज-द्रोही बना देता है। राज द्रोह का कार्य किसी भी प्रकार के अधिकार नहीं दे सकता और न ही यह व्यक्ति को आगे के कार्यों की आपराधिक ज़िम्मेदारी से मुक्त करवा सकता है। अगर किसी निर्देश पर यह कार्य किया गया है (जहां वह निर्देश भी देशद्रोह का है), तो उस निर्देश का पालन करना भी देशद्रोह होगा।
एक बार अभियोजन पक्ष ने इस केस को तैयार कर लिया उसके बाद सीडीसी देसाई ने अपना कार्य संभाल लिया। 2 दिनों में 10 घंटे लेकर देसाई ने बिना किसी रुकावट और बिना किसी लिखित कागज़ों के चुनौतीपूर्ण तर्कों के साथ बचाव पेश किया। इस प्रचलित ट्रायल के अन्य पहलुओं के अलावा एक मुख्य पहलू था कि “दुनिया के किसी भी अदालत के सामने यह ऐसी पहली कानूनी लड़ाई थी जिसमें एक गुलाम राष्ट्र अपने विदेशी शासक के खिलाफ स्वतंत्रता की लड़ाई छेड़ने के लिए कानूनी अधिकार को स्थापित करने की मांग करता है”।
अंतरराष्ट्रीय कानून के जानकार क्रिस्टन सेल्लर के अनुसार, “उनका तर्क था कि यह मुद्दा सार्वजनिक अंतरराष्ट्रीय कानून का था और न कि ब्रिटिश भारतीय नगरपालिका कानून का। उन्होंने पहला तर्क दिया कि आज़ाद हिन्द फौज एक उचित रूप से गठित व स्व-शासित सेना थी जिसे भारतीय अधिकारी चलाते थे, जिसका ब्रिटिश द्वारा चलायी जा रही भारतीय सेना की तरह ही अपना अनुशासनात्मक कोड, रैंक, वर्दी व चिन्ह थे। इसके दो उद्देश्य थे – भारत की आज़ादी और बर्मा व मलेशिया में रह रहे भारतीयों की युद्ध के दौरान रक्षा करना। अतः अभियोजन पक्ष की दलीलों के विपरीत यह सिर्फ एक जापान-संचालित ग्रुप नहीं था”।
इसके आगे, देसाई ने यह तर्क भी दिया कि आज़ाद हिन्द फौज, स्वतंत्र ‘आजाद हिन्द सरकार’ की ओर से लड़ रही थी जोकि एक औपचारिक राज्य की हर आवश्यकता को पूरी करता है – जैसे संसाधनों और वित्त व्यवस्था पर स्वामित्व होना और अंडमान व निकोबार सहित अन्य क्षेत्रों पर 18 महीने तक अधिकार। इसके साथ ही इनका अपना कानून भी था।
इसके अलावा आज़ाद हिन्द सरकार को जापान व उसके सहयोगियों द्वारा एक संप्रभु सरकार के रूप में मान्यता दे दी गयी थी, जिसके बाद ही उसने ब्रिटेन पर युद्ध की घोषणा की थी और इसका अर्थ है कि यह एक युद्धरत राज्य के रूप में अपने अधिकारों का प्रयोग कर सकता है। देसाई ने राजद्रोह के तर्क को घुमाकर उस बिन्दु पर ला खड़ा किया जिसमें अंतरराष्ट्रीय कानून के अनुसार एक गुलाम देश के पास एक विदेशी शासक से युद्ध कर उसे बाहर निकालने का अधिकार प्राप्त है।
इस केस पर प्रकाश डालते हुए एक सोशल मीडिया पोस्ट में जस्टिस (रिटायर्ड) मार्कन्डेय काटजू लिखते हैं, “श्री देसाई ने यह कहा कि अंतरराष्ट्रीय कानून में निश्चित प्रावधान है कि जब दो सरकारें आपस में युद्ध लड़ती हैं, तब युद्धशील लड़ाकू माने जाते हैं और सैनिकों को हत्या या किसी भी नगरपालिका कानून के आरोप में सज़ा नहीं सुनाई जा सकती। मामला नगरपालिका कानून से निकल कर अंतरराष्ट्रीय कानून का बन जाता है। अतः आरोपित, आज़ाद हिन्द फौज के सैनिकों का अधिकार है कि उनके साथ युद्धबंदी के रूप में पेश आया जाए।”
“अभी स्थिति यह है कि अंतरराष्ट्रीय कानून उस स्तर पर पहुँच गया है जहाँ स्वतंत्रता व लोकतंत्र का पूरी दुनिया में अगर कोई मतलब निकाला जाए तो वो एक ऐसा कानून है जो कहता है – ‘कोई भी युद्ध खुद को विदेशी ताकतों से मुक्त कराने के लिए लड़ी जाये तो उसे आधुनिक अंतरराष्ट्रीय कानून के अंतर्गत पूरी तरह सही माना जाएगा। यह न्याय का उपहास होगा अगर किसी भी निर्णय पर पहुँचकर या अन्य तरह से भी हमें यह कहा जाये कि कोई भी भारतवासी एक सैनिक के रूप में जाकर इंग्लैंड की स्वतंत्रता के लिए जर्मनी के खिलाफ, इंग्लैंड के लिए इटली के खिलाफ, इंग्लैंड के लिए जापान के खिलाफ लड़ तो सकता है, पर उस स्थिति में नहीं पहुँच सकता है जब एक स्वतंत्र भारतीय राज्य खुद को किसी अन्य देश (जिसमें इंग्लैंड भी शामिल है) से मुक्त करने की आकांक्षा रखे।’ दूसरे शब्दों में, यह पूर्व धारणा कि एक स्वतंत्र संप्रभु राज्य ही युद्ध की घोषणा कर सकता है, पुराना है और एक दुश्चक्र को बढ़ावा देता है जिसमें एक अधीन देश अनंतकाल तक अधीन ही रहेगा। इसलिए आधुनिक अंतरराष्ट्रीय कानून खुद को व्यवस्थित करने और स्वतंत्रता के लिए लड़ने के अधिकार को मान्यता देता है।”
अपने तर्को के बीच देसाई उन ब्रिटिश भारतीय सैनिको की ईमानदारी के सवाल पर भी लड़ते रहे जो आज़ाद हिन्द फ़ौज में शामिल हो गए थे।
“क्या इन तीनों सैनिको के लिए ऐसी सरकार के लिए वफादार बने रहना अनिवार्य था जिसने इन्हें छोड़ दिया था? 26 फरवरी 1942 को, ब्रिटिश ने सिंगापुर को जापानी सेना को सौंप दिया। ब्रिटिश व ऑस्ट्रेलियाई बंधको को जेल या नज़रबंद शिविरों में भेज दिया गया, पर 40,000 भारतीय जिन्होंने ब्रिटिश भारतीय सेना की ओर से समर्पण किया, उनके समक्ष दो विकल्प रखे गए – या तो वे युद्धबंदी बन जाये या आज़ाद हिन्द फौज (आईएनए) में शामिल हो जाये। ” – देसाई
आत्मसमर्पण करने वाला आधा दल आज़ाद हिन्द फौज में शामिल हो गया, जो पहले मोहन सिंह के नेतृत्व में था। इसकी कमान आगे चलकर जुलाई 1943 से सुभाष चंद्र बोस ने संभाली और युद्ध के ऐलान के अलावा अर्ज़ी-हुकूमत-ए-आज़ाद हिन्द (स्वतंत्र भारत की स्थानीय सरकार) की घोषणा की।
सेलर्स अपने पेपर में लिखती हैं, “आरोपी व गवाह दोनों का कहना था कि सिंगापुर के पतन ने उन्हें आश्वस्त कर दिया था कि ब्रिटेन भारतीय हितों की रक्षा करने में असमर्थ है और इसलिए उनकी राज-भक्ति समाप्त हो गयी थी। शाहनवाज़ खान के कहा था – ‘जब राजा व देश के बीच चुनाव करने को मजबूर किया गया तो मैंने अपने देश के प्रति ईमानदार रहने का निश्चय किया’।”
देसाई व उनकी टीम द्वारा बचाव की हर कोशिश के बाद भी तीनों आरोपियों को देशद्रोह और 31 दिसम्बर,1945 को हुई हत्या और अपहरण का दोषी पाया गया। 3 जनवरी, 1946 को सुनायी गयी सज़ा में उन्हें फांसी तो नहीं दी गयी पर उन्हें उनकी नौकरियों से बर्खास्त कर दिया गया, वेतन व भत्ते ज़ब्त करने के आदेश दिये गए और अपराधियों को सुदूर जगहों पर भेजने की सज़ा सुनाई गयी।
पर जो दलीलें देसाई द्वारा दी गयीं उसका असर इस सज़ा पर और साथ ही स्वतंत्रता संग्राम पर पड़ा। इस ट्रायल से जनता के बीच फैले आक्रोश ने देश में ब्रिटिश सरकार के दबदबे की कमर तोड़ कर रख दी और इसकी मशाल लिए सबसे आगे खड़े थे भूलाभाई देसाई।
इस ट्रायल के विवरण को अपनी किताब एशिया रीबोर्न में अंकित करने वाले प्रसनजीत के. बासु लिखते हैं, “ब्रिटिश शासन की नींव, भारतीय सशस्त्र बल की ईमानदारी और आईएनए ट्रायल के बाद बेहद कमजोर पड़ गयी”।
आज़ाद हिन्द फौज की तरफ से जो कानूनी लड़ाई भूलाभाई देसाई ने लड़ी, उन तर्को की गूंज आज भी कानूनी गलियारे में गूंज रही है।