जिसे ‘गानेवाली’ कहकर दुनिया दुत्कारती रही, उसी पांचवी पास गंगूबाई को 4 विश्वविद्यालयों ने दिया डॉक्टरेट

रात के साढ़े बारह बजे थे, मशहूर गायिका गंगु बाई हंगल सोने जा चुकी थीं, तभी दो टेलीग्राम आये, एक, तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी का था और दूसरा बाबू जगजीवन राम का। दोनों ही टेलीग्रामों में उन्हें बधाई दी गयी थी, पद्म भूषण पुरस्कार के लिए।

“मुझे कब किसीने बधाई का टेलीग्राम भेजा था? मैं उठी और जाकर अपने मामा, रमन्ना को जगाया। वे मेरे पास आकर बैठ गए। और हम दोनों ने क्या किया? सुबह होने तक बैठकर रोते रहे। यह सब संगीत की वजह से था…हम जिस दर्द से गुज़र कर यहाँ तक पहुंचे थे… ख़ुशी का ठिकाना नहीं था…पर हम अपने बीते हुए कल के बारे में सोचते रहे,” पहला राष्ट्रीय सम्मान पद्म भूषण मिलने पर गंगूबाई ने यह प्रतिक्रया दी।

इस पुरस्कार के बाद गंगुबाई को कई लोगों ने अपने घर भोजन करने के लिए आमंत्रित किया। गंगूबाई का कहना था कि इनमें से कुछ वह लोग भी थे, जिनके पेड़ से आम चुराने पर कभी उन्होंने उस पेड़ को ही अपवित्र मान लिया था, क्यूंकि उन उच्च जातीय लोगों के लिए गंगू बाई एक गाने वाली की बेटी थी।

हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में किराना घराने की प्रख्यात गायिका गंगुबाई का जन्म 5 मार्च 1913 को कर्नाटक के धारवाड़ जिले के शुक्रवारादापेते गाँव में हुआ था।

गंगू बाई हंगल

उनकी माँ, अंबाबाई तथा दादी, कमलाबाई दोनों का ही विवाह उच्च कोटि के ब्राह्मणों के साथ हुआ था, फिर भी उन्हें नीच कोटि का शुद्र माना जाता था। ऐसा इसलिए, क्यूंकि उनकी पिछली सभी पीढियां और गंगुबाई खुद देवदासी परम्परा की शिकार थीं। उनका जन्म केवट जाती में हुआ था, जहाँ की स्त्रियाँ गाने-बजाने में निपुण होती थी, पर उन्हें ‘अंगवस्त्र’ कहा जाता था। जिसका मतलब होता है, उच्च जाती के पुरुषों द्वारा लिया हुआ एक अतिरिक्त कपड़ा। ये महिलाएं उच्च जाती के पुरुषों द्वारा अपनाई जाती और पत्नियों की भांति रहती, उनकी संतान को जन्म भी देती, पर उन्हें पत्नी का दर्जा नहीं दिया जाता था।

“बचपन की कई कड़वी यादें मेरे साथ जुड़ी हुई है। मुझे याद है मैं बेलगाम कांग्रेस सेशन में गा रही थी, जहाँ गाँधी जी भी प्रस्तुत थे। पूरे प्रोग्राम में मुझे बस एक ही बात का डर था कि शायद मुझे मेरा खाना अलग से खाने को कहा जायेगा,” अपने 75वें जन्मदिन पर बात करते हुए उन्होंने कहा था।

इसी तरह घृणा, भेद-भाव और तंजों के बीच से संघर्ष करती हुई, जिस तरह से गंगुबाई ने संगीत सम्राज्ञी बनने का सफ़र तय किया वह एक निराली कहानी है।

गंगुबाई की माँ अंबाबाई कर्नाटिक संगीत में माहिर थी। संगीत के बड़े-बड़े महारथी उनका कर्नाटिक संगीत सुनने आते। यहाँ तक कि किराना घराने के अब्दुल करीम ख़ान ने उनका संगीत सुनकर एक बार कहा था कि उन्हें लग रहा है जैसे वे तन्ज़ोर में हैं।

संगीत के बीच पलती हुई गंगूबाई में भी संगीत के प्रति जन्मजात लगाव था। अपने बचपन के दिनों में वह ग्रामाफोन सुनने के लिए सड़क पर दौड़ पड़ती थी और उस आवाज़ की नकल करने की कोशिश करती थी।

“मुझे याद नहीं कि गायक कौन था, पर गाना कुछ ऐसा था ‘राधा बोलो मुझसे’।” दीपा गणेश के साथ एक इंटरव्यू के दौरान उन्होंने कहा था।

अंबाबाई ने शुरू में तो छोटी गांधारी (गंगुबाई का असली नाम) को कर्नाटिक संगीत सिखाने की कोशिश की, पर हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की तरफ़ उनके रुझान को देखते हुए उन्होंने अपनी बेटी को उस ज़माने में भी अपना रास्ता खुद चुनने की आज़ादी दी। उन्हें हिन्दुस्तानी संगीत सिखाने के लिए ही उनकी माँ उन्हें लेकर हुबली चली गयी। यहाँ वे पांचवी तक की ही पढ़ाई कर पायी।

13 साल की उम्र में गंगू बाई ने एच कृष्णाचार्य से संगीत का प्रशिक्षण लेना शुरू किया। यहाँ उन्होंने एक साल में ही 60 गाने सीखे, पर फिर फ़ीस को लेकर किसी विवाद के चलते कृष्णाचार्य ने उन्हें सिखाना छोड़ दिया। इसके बाद उन्होंने गुरू दत्तोपंत देसाई से प्रशिक्षण लेना शुरू किया।

अभी वे 16 की ही हुई थी कि देवदासी परम्परा के तहत उन्हें ब्राहमण परिवार के गुरुराव कौल्गी के साथ रहने जाना पड़ा। गंगूबाई के मुताबिक़ गुरुराव ने उनके सामने शादी का प्रस्ताव भी रखा था, पर उन्हें पता था कि ऐसा करने से समाज गुरुराव का भी बहिष्कार कर देगा। इसलिए आजीवन उन्होंने इस प्रस्ताव को नहीं स्वीकारा। पर गुरूराव से उनका सम्बन्ध उनकी संगीत साधना में बाधा के अलावा और कुछ नहीं था। गुरूराव पेशे से वकील थे, पर उन्होंने वकालत नहीं की। उन्होंने अपना सारा पैसा व्यवसाय में गंवा दिया और उनके और उनके परिवार की सारी आर्थिक ज़िम्मेदारी गंगूबाई पर आ गयी। वे जो भी कमाती, गुरूराव के आगे रख देती। संगीत सीखते हुए, लगातार उनका ध्यान अपनी आर्थिक तंगी पर भी रहता, जो उनके मुताबिक संगीत के लिए बिलकुल ठीक नहीं है।

इसी दौरान उन्हें उस्ताद सवाई गंधर्व के बारे में पता चला, जो उस्ताद भीम सेन जोशी और फ़िरोज़ दस्तूर जैसे महान गायकों के गुरू रहे हैं। उस्ताद सवाई गंधर्व कुंडगोल में रहते थे, जो गंगू बाई के गाँव से 30 किमी की दूरी पर था। वे हर सुबह 5:30 बजे अपने गाँव से ट्रेन में कुंडगोल जाती और रात 9:30 की ट्रेन से लौटती।

“मुझे याद है जब मैं गुरूजी के घर जाने के लिए उन गलियों से गुज़रती, तो लोग अपने घरों से निकल-निकलकर मुझे देखते और कहते -‘देखो, देखो गानेवाली आई है, यह अपमानजनक था, पर धीरे-धीरे मुझे इसकी आदत पड़ गयी थी,’ गंगुबाई ने अपने बीते दिनों को याद करते हुए बताया था।

वक़्त गुजरा और गंगुबाई तीन बच्चों की माँ बन गयी अब जिम्मेदारियों का बोझ और ज़्यादा था पर गंगूबाई ने हर परिस्थिति का सामना करते हुए संगीत का प्रशिक्षण जारी रखा। गंधर्व ने उन्हें 3 साल में संगीत में इतना पक्का कर दिया कि यह उनके जीवन भर के लिए काफ़ी था।

गंगूबाई, जो ख्याल  की  गायिका थी, बहुत कम भजन या भक्ति संगीत गाती थी। पूछे जाने पर वे कहती कि उनके गुरू ने  जो कुछ भी सिखाया है, वह सब कुछ उनके लिए किसी भक्ति-साधना से कम नहीं है और इसलिए उन्हें भक्ति संगीत और दूसरे संगीत में कोई फर्क महसूस नहीं होता।

उनका पहला स्टेज परफॉरमेंस बम्बई के ‘बॉम्बे म्यूजिक सर्किल’ में हुआ, जहाँ उस वक़्त की मशहूर गायिका और अभिनेत्री नर्गिस की माँ, जद्दनबाई ने उन्हें कलकत्ते में हो रहे एक म्यूजिक कांफ्रेंस में भाग लेने को कहा। पर जब गंगूबाई वहां पहुंची तो वहां के संस्थापकों को इस नाज़ुक सी लड़की को देखकर यकीन नहीं हुआ कि वह कुछ गा भी पायेगी, इसलिए कांफ्रेंस से एक रात पहले उन्हें गाकर सुनाने के लिए कहा गया और गाना सुनने के बाद ही कांफ्रेंस में शामिल होने की इजाज़त दी गयी।

यह वही कांफ्रेंस था, जिसके बाद गंगूबाई ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। यहाँ पर उनके गाने के बाद उन्हें त्रिपुरा के महाराजा ने एक सोने की मुद्रा इनाम के तौर पर दिया था।

“इस कांफ्रेंस में मैं अपनी माँ को बहुत याद कर रही थी, जो अब इस दुनिया में नहीं थीं। मेरे अच्छा गाने पर वे हमेशा मेरे कंधे पर हाथ रखती। मैं इस बात को याद कर ही रही थी कि किसीने मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, ‘बहुत ही सुरीली आवाज़ है’, यह कहने वाले और कोई नहीं बल्कि खुद मशहूर गायक के.एल सहगल थे,” गंगूबाई ने एक इंटरव्यू के दौरान यह वाकया बताया था।

पर इस बेहतरीन कलाकार की मुश्किलें यहीं ख़त्म नहीं हुई। 50 का दशक शुरू हो चुका था और उनके आवाज़ का जादू चलने ही लगा था, कि उन्हें टॉन्सिल्स हो गए और उनके गले का ऑपरेशन करना पड़ा। इसके बाद उनकी आवाज़ पुरुषों की तरह भारी हो गयी। पर इस पर भी गंगूबाई निराश नहीं हुई और इसी आवाज़ में गाने लगी। कठिन रियाज़ की वजह से उनके सुर-ताल इतने पक्के थे, कि सुनने वालों ने उन्हें इस आवाज़ के साथ भी अपना लिया।

भैरव, असावरी, तोड़ी, भीमपलासी, पुरिया, धनश्री, मारवा, केदार और चंद्रकौंस जैसे रागों को अपनी आवाज़ से सजाने वाली गंगूबाई ने कई बाधाओं को पार कर ,अपनी गायिकी को उस मुकाम तक पहुंचाया, जहाँ से उनके पिछले कल को कोई नहीं देखता, देखता है तो केवल उनकी प्रतिभा को। भारत सरकार ने उन्हें पद्म भूषण, पद्म विभूषण, तानसेन पुरस्कार, कर्नाटक संगीत नृत्य अकादमी पुरस्कार और संगीत नाटक अकादमी जैसे पुरस्कारों से नवाज़ा है और जनता ने उन्हें प्यार से।

बहुत कम लोग यह जानते हैं कि गंगूबाई ने 78 आरपीएम विनयल रिकार्ड्स में गज़ले भी रिकॉर्ड की है। 90 साल की उम्र तक भी 2002 तक वे आकाशवाणी के लिए गाती रहीं।

2003 में बोन मेरो कैंसर से जूझकर निकलने के बाद भी 2006 में उन्होंने अपना आख़िरी कॉन्सर्ट किया। संगीत के क्षेत्र में आधे से अधिक सदी तक अपना योगदान देने के बाद 21 जुलाई, 2009 को 97 वर्ष की उम्र में दिल से गाने वाली इस कलाकार ने दिल का दौरा पड़ने से इस संसार से मुक्ति ले ली। जाते हुए वे अपनी आँखे दान करती हुई गयी।

‘A LIFE IN THREE OCTAVES THE MUSICAL JOURNEY OF GANGUBAI HANGAL‘ नामक किताब में लेखिका दीपा गणेश ने उनके जीवन के सारे उतार चढ़ाव को बेहद खूबसूरती से उतारा है। किताब की एक और विशेषता है – गाने के साथ-साथ पकाने में भी रूचि रखने वाली गंगूबाई की साम्भर और अवालाकाई (पोहा) की रेसिपी भी उन्होंने इस किताब में दी है।

गंगूबाई का जीवन चुनौतियों से भरा रहा। पर अपनी काबिलियत के दम पर इस पांचवी पास कलाकार ने चार विश्वविद्यालयों से डॉक्टरेट हासिल की , 50 से ज़्यादा अवार्ड्स लिए और नौ प्रधानमंत्रियों तथा पाँच राष्ट्रपतियों द्वारा सम्मानित हुई। उनकी कहानी इस बात का प्रत्यक्ष उदाहरण है कि यदि हौसला, हिम्मत और ढृढ़ संकल्प हो, तो समाज चाहे आपको जो भी नाम दे, आप जाते हुए ‘सुर सम्राज्ञी डॉ. गंगूबाई हंगल’ के नाम से जाने जा सकते हैं!