सुभाषितानि

स्वर वर्ण

अज्ञ: सुखमाराध्‍य: सुखतरमाराध्‍यते विशेषज्ञ:।

ज्ञानलवदुर्विदग्‍धं ब्रह्मापि तं नरं न रञ्जयति ।।

भावार्थ –मूर्ख को सरलता पूर्वक समझाया जा सकता है। विद्वान् को उससे भी अधिक सरलता से समझाया जा सकता है किन्‍तु जिस अल्‍पज्ञानी को अपने ज्ञान का मिथ्‍या अभिमान हो उसे तो ब्रह्मा भी समझा नहीं सकते।

अति साहसमतिदुष्करमत्याश्चर्यं च दानमर्थानाम् ।।

योऽपि ददाति शरीरं न ददाति स वित्तलेशमपि ।। – प्रसार सारावली (सुभाषितरत्नाकर )

भावार्थ – समाज की सेवा और उन्नति के लिये धन संपत्ति का दान करना एक अत्यन्त कठिन, साहसिक तथा प्रशंसनीय कार्य है | परन्तु कुछ (लोभी और कंजूस) व्यक्ति चाहे अपनी जान दे देंगे लेकिन अपनी संपत्ति का लेशमात्र अंश भी दान नहीं करते हैं ।

अर्थनाशं मनस्तापं गृहे दुश्चरितानि च ।

वंचनं चापमानं च मतिमान्न प्रकाशयेत् ।।

भावार्थ – बुद्धिमान् पुरुष धन का नाश, मन का सन्ताप , अपने घर में दुश्चरित्र,ठगा जाना और अपमान को प्रकाशित न करे ।

अधर्मेणैथते पूर्वं ततो भद्राणि पश्यति ।

ततः सपत्रान् जयति समूलस्तु विनिष्यति ।

भावार्थ – यदि कोई व्यक्ति धर्म के अनुसार आचरण नहीं करता है तो प्रारम्भ में तो एक पेड के समान खूब् फलता फूलता है और विजयी हो कर धन संपत्ति भी अर्जित कर लेता है , परन्तु बाद में जिस प्रकार एक पेड जड सहित सूख जाता है वैसे ही गलत साधनों से अर्जित संपत्ति भी प्रारम्भिक पूंजी (मूल धन) सहित नष्ट हो जाती है।

अन्नदानं  परं  दानं   विद्यादानमतः परम्।

अन्नेन क्षणिका तृप्तिः यावज्जीवं च विद्यया॥

भावार्थ –  अन्न का दान परम दान है और विद्या का दान भी परम दान है, किन्तु दान में अन्न प्राप्त करने वाले को कुछ क्षणों के लिए ही तृप्ति प्राप्त होती है, जबकि दान में विद्या प्राप्त करने वाला (अपनी विद्या से आजीविका कमा कर) जीवनपर्यन्त तृप्ति प्राप्त करता है ।

अन्नपते अन्नस्य नो देह्यनमीवस्य शुष्मिणः।

प्र प्र दातारं तारिष ऊर्जं नो धेहि द्विपदे चतुष्पदे ।।

शब्दार्थ– हे {अन्नपते } अन्न के पति भगवन् ! {नः} हमे {अनमीवस्य }कीट आदि रहित{शुष्मिणः} बलकारक {अन्नस्य } अन्न के भण्डार{ देहि } दीजिये {प्रदातारं }अन्न का खूब दान देने वाले को {प्रतारिष } दु:खो से पार लगाईये{ नः} हमारे {द्विपदे चतुष्पदे} दोपायो और चौपायो को { ऊर्जं } बल {धेहि } दीजिये।

अन्यायोपार्जितं वित्तं दस वर्षाणि तिष्ठति।

प्राप्ते चैकादशेवर्षे समूलं तद् विनश्यति।।

भावार्थ – अन्याय या गलत तरीके से कमाया हुआ धन दस वर्षों तक रहता है। लेकिन ग्यारहवें वर्ष वह मूलधन सहित नष्ट हो जाता है।

अपि संपूर्णता युक्तैः कर्तव्या सुहृदो बुधैः।

नदीशः परिपूर्णोऽपि चन्द्रोदयमपेक्षते।।

भावार्थ – सर्वगुण संपन्न विद्वान् व्यक्ति को भी मित्र बनाना चाहिए । समुद्र को अथाह जल राशि के होते हुए भी ज्वार उत्पन्न करने के लिए चन्द्रमा की आवश्यकता पडती है।

अबन्धुरबन्धुतामेति नैक्टयाभ्यास योगतः।

यात्यनभ्यासतो  दूरात्स्नेहो बन्धुषु तानवम् ।। योगवाशिष्ठ ६/उ/६७/२९

भावार्थ – बार-बार मिलने पर  अबन्धु भी बन्धु बन जाता है जबकि दूरी के कारण परस्पर मिलने का अभ्यास छूट जाने से भाई से भी स्नेह की कमी हो जाती है।

अपूज्या यत्र पूज्यन्ते पूज्यानामवमानना ।

त्रीणि तत्र प्रवर्तन्ते दुर्भिक्षं मरणं भयम् ।।

अर्थ– जहाँ अपूज्य लोगों की पूजा होती है और पूज्यों का अपमान होता है, वहाँ अकाल, मृत्यु और डर ये तीनों ही प्रकट हो जाते हैं।

अयं निजः परो वेति गणना लघु चेतसाम् ।

उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ।।

भावार्थ – यह मेरा है ,यह उसका है ; ऐसी सोच संकुचित चित्त वोले व्यक्तियों की होती है;इसके विपरीत उदारचरित वाले लोगों के लिए तो यह सम्पूर्ण धरती ही एक परिवार जैसी होती है।

अरक्षितं तिष्ठति दैवरक्षितं सुरक्षितं दैवहतं विनश्यति ।

जीवत्यनाथोपि वनेऽपिरक्षितः कृतप्रयत्नोऽपि गृहे विनश्यति ।।

अर्थ – जिस व्यक्ति को किसी प्रकार की सुरक्षा प्राप्त नहीं होती है उनका दैव (भाग्य) ही रक्षक होता है, परन्तु जो व्यक्ति अपने को सुरक्षित समझते हैं भाग्यवश उनका ही नाश हो जाता है | एक अनाथ व्यक्ति घने जंगल में भी (भाग्यवश) सुरक्षित रहता है. परन्तु विशेष प्रयत्न करणे पर भी अपने ही घर में मृत हो जाता है ।

अल्पायां वा महत्यां वा सेनायामिति निश्चयः।

हर्षो योधगणस्यैको जयलक्षणमुच्यते ॥

अर्थ – सैन्य छोटा हो या बडा, हर एक सैनिक में लड़ने का उत्साह होना ही विजय प्राप्त करने का एक मात्र मुख्य लक्षण है।

अव्याहृतं व्याहृताच्छ्रेय आहुः सत्यं वदेद् व्याहृतं तद् द्वितीयम्।

प्रियं वदेद् व्याहृतं तत् तृतीयं धर्मं वदेद् व्याहृतं तच्चतुर्थम्।।

१-  बोलने से न बोलना ही अच्छा बताया गया है- (यह वाणी की प्रथम विशेषता है)

२- बोलना ही पड़े तो सत्य बोलना चाहिए क्योंकि यह मौन की अपेक्षा अधिक लाभप्रद है (यह वाणी की दूसरी विशेषता है)

३- सत्य और प्रिय बोलना (यह वाणी की तीसरी विशेषता है)

४-  सत्य और प्रिय के साथ ही धर्मसम्मत भी कहा जाये। प्रत्येक स्तर श्रेष्ठ वाणी का परिमाण है। (यह वाणी की चौथी विशेषता है)

असद्भिः शपथेनोक्तं जले लिखितमक्षरम् ।

सद्भिस्तु लीलया प्रोक्तं शिलालिखितमक्षरम् ।।

भावार्थ – असभ्य ( दुष्ट स्वभाव के) व्यक्तियों द्वारा किसी कार्य को करने के लिये ली गई शपथ जल में लिखे गये अक्षरों के समान (अस्थायी) होती है| इसके विपरीत सभ्य (सज्जन और सत्यवादी ) व्यक्तियों के द्वारा हंसी मजाक में भी कही हुई कोई बात एक शिलालेख के समान (स्थायी) होती है ।

असज्जनः सज्जनसङ्गिसङ्गात्करोति दुःसाध्यमपि साध्यं ।

पुष्पाश्रयाच्छंभुशिरोधिऽरूढा पिपीलिका चुम्बति चन्द्रबिम्बम्।।

अर्थ – साधारण या दुष्ट व्यक्ति भी सज्जन व्यक्तियों के साथ प्रयत्न पूर्वक रह कर अत्यन्त कठिन या असंभव कार्य को भी वैसे ही सम्पन्न कर लेते हैं जैसे कि एक छोटी सी चींटी भी एक पुष्प का आश्रय लेकर भगवान् शिव (की मूर्ति) के मस्तक पर स्थित चन्द्रबिम्ब को चूमने में समर्थ हो जाती है।

असेवितेश्वरद्वारमदृष्टविरहव्यथम् ।

अनुक्तक्लीबवचनम् धन्यं कस्यापि जीवनम् ।।

भावार्थ – जिसने धनी के द्वार का सेवन नहीं किया है औरवियोग के दु:ख को नहीं देखा है और दीन वचन नहीं कहा है ऐसा किसी विरले पुरुष का ही जीवन भाग्यसम्पन्न होता है ।

अहिं नृपं च शार्दूलं वृद्धं च बालकं तथा ।

परश्वानं च मूर्खं च सप्त सुप्तान्न बोधयेत् ॥

अर्थ – सर्प, राजा,सिंह,वृद्ध, बालक, दूसरे का कुत्ता और मूर्ख ये सातों यदि सोए हुए हो तो नहीं जगाना चाहिए।

अहिंसा प्रथमं पुष्पं पुष्पमिन्द्रिय निग्रहः।

सर्वभूतदया पुष्पं क्षमा पुष्पं विशेषतः ॥

ज्ञानं पुष्पं तपः पुष्पं शान्तिः पुष्पं तथैव च ।

सत्यमष्टविधं पुष्पं विष्णोः प्रीतिकरं भवेत् ॥

भावार्थ – अहिंसा, इन्द्रियनिग्रह, सब प्राणियों पर दया, क्षमा, ज्ञान, तप, ध्यान और सत्य-ये आठ पुष्प भगवान श्री विष्णु को प्रसन्न करने वाले हैं। अतएव भक्त का कर्त्तव्य है कि आठ पुष्पों के द्वारा भगवान की नित्य आराधना करे।

आत्मनो मुखदोषेण बध्यन्ते शुकसारिकाः।

बकास्तत्र न बध्यन्ते मौनं सर्वार्थसाधनम्।।

भावार्थ – अपने मुख के दोष (मधुर आवाज) के कारण तोता और मैना बंध जाते हैं, परन्तु बगुला नहीं बंधता (क्योंकि बगुला अपना काम विना बोले चुपचाप करता है )। अतः मौन ही सभी अर्थ को सिद्ध करने का साधन है ।

आदित्यस्य नमस्कारान् ये कुर्वन्ति दिने दिने।

आयुः प्रज्ञा बलं वीर्यं तेजस्तेषां च जायते ॥

अर्थ :- जो लोग प्रतिदिन सूर्य नमस्कार करते हैं, उनकी आयु, प्रज्ञा, बल, वीर्य और तेज बढ़ता है।

आपद्गतं हससि किं द्रविणान्धमूढ: लक्ष्मीः स्थिरा न भवतीति किमत्र चित्रम् ।

एतान् प्रपश्यसि घटान् जलयन्त्रचक्रे रिक्ता भवन्ति भरिता भरिताश्च रिक्ताः ।।

भावार्थ – हे धन से मूढ़ हुए जा रहे लोगों, उस एक गरीब व्यक्ति को विपत्तियों का सामना करते हुए देखकर क्यों हंस रहे हो? यह आश्चर्य नहीं है कि धन हर समय किसी के साथ स्थिर नहीं रहता है। तुम पानी निकालने के लिए चक्र में लगे बर्तन (रेहठ) को देखो – जो खाली हैं उन्हें भरा जा रहा है और जो भरे हुए हैं उन्हें खाली किया जा रहा है।

आपत्सु मित्रं जानीयाद् युद्धे शूरमृणे शुचिम् ।

भार्यां क्षीणेषु वित्तेषु व्यसनेषु च बान्धवान् ॥

भावार्थ – आपत्ति में मित्र की, युद्ध में शूरवीर की, ऋण में पवित्रता की, धनहीन होजाने पर पत्नि की और संकटों में संबंधियों की सच्ची पहचान होती है ।

ईप्सितं तदवज्ञानाद् विद्धि सार्गलमात्मनः।

प्रतिबध्नाति हि श्रेयः पूज्यपूजाव्यतिक्रमः।।

शब्दार्थ – पूज्यों की पूजा का उल्लंघन करना कल्याण को रोकता है।

उद्योगे नास्ति दारिद्रयं जपतो नास्ति पातकम्।

मौनेन कलहो नास्ति जागृतस्य च न भयम्॥

भावार्थ – उद्यम करने  से दरिद्रता तथा जप करने वाले को पाप, मौन रहने से कलह नहीं होता और जागते रहने से अर्थात् सजग रहने से भय नहीं होता।

उत्सवे व्यसने चैव  दुर्भिक्षे राष्ट्रविप्लवे।

राजद्वारे श्मशाने च यः तिष्ठति स बान्धवः।।

भावार्थ – आनंद के समय,संकट के समय,अकाल के समय,शत्रु जब घेरता है,राजदरबार में अथवा श्मशान में जो साथ देता है वही सच्चा बन्धु है।

उत्साहो बलवानार्य नास्त्युत्साहात्परं बलम्।

सोत्साहस्य च लोकेषु न किंचिदपि दुर्लभम्॥

अर्थात्- उत्साह ही व्यक्ति को बलवान बनाता है। उत्साह से बढ़कर कोई बल नहीं है। उत्साही  व्यक्ति के लिए इस लोक में कुछ भी दुर्लभ नहीं है।

उदयति यदि भानु:पश्चिमे दिग्विभागे विकसति यदि पद्मं पर्वतानां शिखाग्रे ।

प्रचलति यदि मेरुःशीततां याति वह्निर्न भवति पुनरुक्तं भाषितं सज्जनानाम् ॥

भावार्थ – यदि सूर्य पश्चिम दिशा मे उदित हो,कमल पर्वत के उपर खिलने लगे,चाहे मेरु पर्वत हिलने लगे और अग्नि शीतल हो जाय तो भी सज्जन पुरुष अपनी बात से विमुख नहीं होता।

उपर्जितानां वित्तानां त्याग एव हि रक्षणम्।

तडगोदरसंस्थानां परिवाह इवाम्भसाम्॥

भावार्थ- जैसे तालाब में भरे हुए जल को निकालते रहने से उसकी पवित्रता और शुध्दता बनी रहती है। उसी प्रकार उपार्जित धन को व्यय कर देना (दान अथवा भोग) ही उसकी रक्षा का एकमात्र उपाय है।

उपकाराच्च लोकानां निमित्तान्मृगपक्षिणाम्।

भयाल्लोभाच्च मूर्खाणां मैत्री स्यात् दर्शनात् सताम्।।

भावार्थ- लोगों के बीच मित्रता उपकार के कारण होती है। पशुपक्षियों के बीच किसी हेतु से, मूर्खों के बीच भय और लोभ के कारण और सज्जनों के बीच दर्शन से मित्रता होती है।

उद्यमेनैव हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथै।

न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः॥

भावार्थ- प्रयत्न करने से ही सभी कार्य सिद्ध होते हैं,न कि इच्छा मात्र से। सोते हुए शेर के मुख में मृग स्वयं प्रवेश नहीं करता।

एकवर्णं यथा दुग्धं भिन्नवर्णासु धेनुषु।

तथैव धर्मवैचित्र्यं तत्त्वमेकं परं स्मॄतम्॥

 भावार्थ- जिस प्रकार अनेक रंगों की गायें एक रंग का ही (श्वेत) दूध देती हैं, उसी प्रकार विभिन्न धर्मों में एकही परम तत्त्व का उपदेश दिया गया है॥

एकेनापि सवृक्षेण पुष्पितेन सुगन्धिना।

वासितं तद्वनं सर्वं सुपुत्रेण कुलं तथा।।

भावार्थ- जिस प्रकार सुगंधित फूलों से युक्त एक वृक्ष भी संपूर्ण वन को सुगंधित कर देता है, उसी प्रकार कुल में उत्पन्न एक गुणवान पुत्र ही संपूर्ण कुल का उद्धार कर देता है।

एते सत्पुरुषा  परार्थघटकाःस्वार्थान्  परित्यज्य  ये

सामान्यास्तु  परार्थमुद्यमभृतः स्वार्थाविरोधेन ये।

तेऽमी  मानुष राक्षसः परहितं स्वार्थाय निघ्नन्ति ये

ये तु घ्नन्ति निरर्थकं परहितं ते के न जानीमहे।।

भावार्थ – वे ही व्यक्ति सज्जन हैं जो अन्य लोगों की सहायता करने के लिये अपने स्वार्थ का भी परित्याग कर देते हैं । इस के विपरीत ऐसे भी राक्षसी प्रवृत्ति के मनुष्य होते हैं जो अपने स्वार्थ के लिये अन्य लोगों के हितों को नष्ट कर देते हैं । ये दुष्ट व्यक्ति बिना किसी कारण के ऐसा क्यों करते हैं यह हम नहीं जानता।

ऐश्वर्यस्य विभूषणं सुजनता शौर्यस्य वाक्संयमो

ज्ञानस्योपशम: श्रुतस्य विनयो वित्तस्य पात्रे व्यय:।

अक्रोधस्तपसः क्षमा प्रभवितुर्धर्मस्य निर्व्याजता

सर्वेषामपि सर्वकारणमिदं शीलं परं भूषणम्।।

भावार्थ – ऐश्वर्य का आभूषण सज्जनता, शूरता का वाणी पर संयम रखना, ज्ञान का शान्ति भाव, वेदशास्त्र के ज्ञान का नम्रता, धन का सत्पात्र में व्यय करना, तपस्वी का क्रोध न होना, सामर्थ्यवान् का सहिष्णुता और धर्म का आभूषण निष्कपट होता है किन्तु इन समस्त गुणों का कारणभूत शील सबका श्रेष्ठ आभूषण है ।

कवर्ग

कार्यमण्वपि काले तु कॄतमेत्युपकारताम् ।

महदप्युपकारोऽपि रिक्ततामेत्यकालत: ।।

भावार्थ- किसी का छोटा सा भी काम अगर सही समय पर कर दें  तो वह उपकारक होता है। परंतु अगर असमय बड़ा किया गया उपकार भी किसी काम का नहीं रह जाता।

कुसुमं वर्णसंपन्नं गन्धहीनं न शोभते।

न शोभते क्रियाहीनं मधुरं वचनं तथा।।

भावार्थ- कोई पुष्प रंग बिरंगा होने पर भी शोभित नहीं होता है यदि वह् गन्धहीन होता है | उसी प्रकार बिना कोई कार्य (सहायता) किये केवल मीठी मीठी बातें करना भी शोभा नहीं देता है।

किमप्यस्ति स्वभावेन सुन्दरं वाप्यसुन्दरम् ।

यदेव रोचते यस्मै भवेत्तत्तस्य सुन्दरम् ॥

भावार्थ- किसी की भी सुन्दरता और कुरूपता का कारण उसके स्वभावगुण कहाँ होते हैं ? जो प्रिय (अथवा अप्रिय) हैं , वही सुन्दर (अथवा कुरुप) लगता हैं।

क्षणशः कणशश्चैव विद्यामर्थं च चिन्तयेत् ।

क्षणत्यागे कुतो विद्या कणत्यागे कुतो धनम्॥

भावार्थ-एक-एक क्षण विद्या  और प्रत्येक कण में विद्या और धन की चिन्ता करनी चाहिए। समय नष्ट करने पर विद्या और वस्तु का छोटा सा अंश भी नष्ट करने पर धन कैसे प्राप्त हो सकता है ।

क्षमा धर्मः क्षमा यज्ञः क्षमा वेदाः क्षमा श्रुतम् ।

य एतदेवं जानाति स सर्वं क्षन्तुमर्हति ॥

क्षमा ब्रह्म क्षमा सत्यं क्षमा भूतं च भावि च ।

क्षमा तपः क्षमा शौचं क्षमयेदंधृतं जगत् ॥

 

कुलशीलेषु सम्पन्नो नीति धर्मेषु पण्डितः।

तथैव पूज्यते राजा चतुरस्र प्रकीर्तितः।।

भावार्थ – एक राजा यदि किसी कुल और चरित्र से सम्पन्न हो, नीति और धर्म का ज्ञाता हो तो जनता उसकी पूजा करती है और ऐसे राजा की कीर्ति (प्रसिद्धि) सर्वत्र व्याप्त होती है।

कोकिलानां स्वरो रूपं नारीरुपं पतिव्रतम्।

विद्यारूपं कुरूपीणां क्षमा रूपं तपस्विनाम्।।

भावार्थ- कोयल का स्वर ही उस की सुन्दरता है । नारी की सुन्दरता उसकी पतिव्रता होने में है । कुरुप लोगों की सुंदरता उन की विद्वत्ता में होती हैं और क्षमा करने का गुण ही तपस्वी जनों की सुन्दरता है ।

क्रोधो हि शत्रुः प्रथमो नराणां देहस्थितो देहविनाशनाय ।

यथा स्थितः काष्ठगतो हि वह्निः स एव वह्निः दहते शरीरम् ॥

भावार्थ- मनुष्य के शरीर के विनाश के लिए शरीर में स्थित क्रोध प्रथम शत्रु है। जैसे लकड़ी में स्थित आग लकड़ी को जला देती है, वैसे ही शरीर में स्थित क्रोध रूपी आग शरीर को जला देती है।

 

खवर्ण

खल्वाटो दिवसेश्वरस्य किरणैः संतापितो मस्तके

वाञ्छन्देशमनातपं विधिवशात्तालस्य मूलं गतः।

तत्रोच्चैर्महता फलेन पतता सशब्दं शिरः

प्रायो गच्छति यत्र भाग्यरहिस्तत्राऽपदां भाजनम्॥

अर्थ – एक खल्वाट (गंजा ) व्यक्ति सूर्य की तेज किरणों से अपना सिर झुलस जाने के कारण एक गर्मी से रहित देश (स्थान ) की कामना से भाग्यवश एक नारियल के वृक्ष के नीचे बैठ गया | उसी समय एक बडा नारियल जोरदार सावाज करता हुए उसके सिर पर आ गिरा | प्रायः यही देखा गया है कि भाग्यहीन व्यक्ति जहां कहीं भी जाता है वहीं पर आपदाओं का पात्र बन जाता है।

खद्योतो द्योतते तावद्यावन्नोदयते शशी |

उदिते तु सहस्रांशौ न खद्योतो न चन्द्रमा ||

भावार्थ – जुगनू तभी तक चमकते हैं जब तक आकाश में चन्द्रमा का उदय नहीं होता है | परन्तु सूर्य के आकाश में उदय होने पर न तो जुगनू की चमक दिखाई देती है और न ही चन्द्रमा की ।

गजभुजङ्गयोरपि बन्धनं शशिदिवाकरयोर्ग्रहपीडनम् |

मतिमतां च विलोक्य दरिद्रतां विधिरहो बलवानिति मे मतिः ||

अर्थ – अहो !! हाथियों और सांपों को (जो बलवान हैं) मनुष्यों की कैद में देख कर ,सूर्य और चन्द्रमा को भी (राहु और केतु) ग्रहों के द्वारा पीडित होते देख कर(सूर्य और चन्द्रमा के ग्रहण की ज्योतिषीय घटना),तथा बुद्धिमान् और विद्वान् व्यक्तियों को दरिद्रता में जीवनयापन करते हुए देख कर तो मेरा यही मानना है कि भाग्य ही सबसे अधिक बलवान होता है |

गवर्ण

गर्जति शरदि न वर्षति वर्षति वर्षासु निःस्वनो मेघः ।

नीचो वदति न कुरुते न वदति सुजनः करोत्येव ॥

भावार्थ- शरद ऋतु में मेघ केवल गर्जन करता है, वर्षा ऋतु में वह वृष्टि करता है। दुर्जन कहते हैं पर करते नहीं, सज्जन कार्य करते हैं पर कहते नहीं ।

गुणदोषसमाहारे दोषान् गृह्णन्त्यसाधवः।

मुक्ताफलानि संत्यज्य काकाःमांसमिव द्विपात्।।

भावार्थ- जिस प्रकार कौआ हाथी के मस्तक से मुक्ताफल को छोड़ कर मांस का ग्रहण करता है उसी प्रकार बुरे लोग गुण और दोष में से गुण का परित्याग कर दोष का ग्रहण कर लेते हैं ।

गुरुशुश्रूषया विद्या पुष्कलेन धनेन वा |

अथवा विद्यया विद्या चतुर्थो न उपलभ्यते ||

भावार्थ – विद्या की प्राप्ति या तो लगन और श्रद्धा पूर्वक अपने गुरु की सेवा के द्वारा,अथवा प्रचुर मात्रा में धन व्यय करने से, तथा विद्या के आदान प्रदान से होती है | इन तीनों के अतिरिक्त अन्य कोई चौथी विधि विद्या प्राप्ति के लिये उपलब्ध नहीं है |

गुरुः पिता गुरुर्माता गुरुर्देवो गुरुर्गतिः।

शिवेरुष्टे गुरुस्त्राता गुरौ रुष्टे न कश्चन ॥

अर्थ – एक गुरु हमारे जन्मदाता पिता और माता के समान श्रद्धेय तथा देवताओं के समान पूजनीय है | एक रक्षक और मार्गदर्शक के रूप में वह् अन्तिम साधन है क्योंकि महादेव शिव भी यदि क्रुद्ध हो जाये तो एक गुरु उनके क्रोध से रक्षा करने में सक्षम है | परन्तु यदि स्वयं गुरु ही क्रोधित हो जाये तो फिर कोई भी रक्षक नहीं हो सकता है |

चला लक्ष्मीश्चला प्राणाश्चलं जीवित यौवनम् ।

चलाचलो च संसारे धर्म एको हि निश्चलः॥

अर्थ – धन संपत्ति (लक्ष्मी), प्राण , जीवित रहने की अवधि तथा यौवन (जवानी) अस्थिर और चलनीय होते हैं । इस संसार में सभी कुछ अस्थिर और परिवर्तनशील है और केवल धर्म (सद् आचरण ) ही निश्चल (अपरिवर्तनीय) है ।

जनिता चोपनेता च यस्तु विद्यां प्रयच्छति।

अन्नदाता भयत्राता पञ्चैते पितरः स्मृताः ॥

अर्थ – जन्म देनेवाला, यज्ञोपवीत कराने वाला, विद्या देने वाला, अन्नदाता और भय से रक्षा करने वाला  ये पांच पिता  कहे गये हैं ।

जरा रूपं हरति हि धैर्यमाशा मृत्युः प्राणान्धर्मचर्यामसूया ।

क्रोधः श्रियं शीलमनार्यसेवा ह्रियं कामः सर्वमेवाभिमानः॥

अर्थ –  बुढ़ापा रूप का हरण करता है। आशा से धैर्य का हरण होता है।  मृत्यु से प्राण का हरण होता हैं । मत्सर से धर्माचरण का , क्रोध से सम्पत्ति का तथा दुष्टों की सेवा करने से शील का नाश होता हैं । कामवासना से लज्जा का तथा अभिमान से समस्त गुणों का अन्त होता हैं ।        (महाभारत उद्योग पर्व ३५.५०)

जीवन्तोऽपि मृताः पञ्च व्यासेन परिकीर्तिताः |

दरिद्रो व्याधितो मूर्खः प्रवासी नित्यसेवकः ||

अर्थ – धर्मशास्त्रों के व्याख्याकारों द्वारा यही उद्घोषित किया जाता है कि दरिद्र, बीमार, मूर्ख, अपने परिवार से दूर विदेश मे रहने वाले तथा बंधुआ मजदूर , ये पांच प्रकार के व्यक्ति दीर्घजीवी होने पर भी एक मृतक के समान होते हैं।

तवर्ग

त्यजेदेकं कुलस्यार्थे ,ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत् ।

ग्रामं जनपदस्यार्थे,आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत् ।।

अर्थ – एक व्यक्ति को छोड़ने पर वंश की भलाई हो तो उसको छोड़ दे ।किसी ग्राम का त्याग करने पर देश की भलाई हो तो उस ग्राम का परित्याग करे ,भूमि को छोडने पर अपनी भलाई हो तो उस भूमि ( सब कुछ ) को छोड़ देना चाहिए ।

त्यजेत् क्षुधार्ताः जननी स्वपुत्रं खादेत् क्षुधार्ताः भुजगी स्वमण्डम् |

बुभुक्षितः किं न करोति पापं क्षीणा जनाः निष्करुणा भवन्ति ||

भावार्थ – भूख से व्याकुल एक मां (अपने प्राण बचाने के लिये ) अपने पुत्र को भी त्याग देती है , और एक भूखी सांपिन स्वयं अपने ही अण्डो को खा जाती है | इसी लिये कहा गया है कि एक भूखा व्यक्ति कोई भी पाप (निषिद्ध कार्य) कर सकता है तथा कमजोर व्यक्ति भी ऐसी परिस्थिति में निर्दय हो जाते हैं ।

त्यजन्ति मित्राणि धनैर्विहीनं दाराश्च भृत्याश्च सुहृज्जनाश्च।

तं चार्थवन्तं पुनराश्रयन्ते अर्थो हि लोके पुरुषस्य बन्धुः॥

भावार्थ- धन विहीन को मित्र, पत्नी, नौकर, बन्धु-बान्धव साथ छोड़ देते हैं। हैं। वे पुनः धनवान् के साथ रहने लगते हैं। धन ही संसार में लोगों का बन्धु है।

त्रीण्येव तु पदान्याहुः पुरुषस्योत्तमं व्रतम् ।

न द्रुह्येच्चैव दद्याच्च सत्यं चैव परं वदेत् ॥

भावार्थ-   वेद मनुष्य के लिये तीन बातों को उत्तम व्रत बताते हैं । किसी के प्रति द्रोह न करें, उदार हाथ से दान दें तथा दूसरों से सदा सत्य बोले ।

दर्शने स्पर्शणे वापि श्रवणे भाषणेऽपि वा।

यत्र द्रवत्यन्तरङ्गं स स्नेह इति कथ्यते॥

भावार्थ- यदि किसी को देखने से या स्पर्श करने से, सुनने से या बात करने से हृदय द्रवित हो तो इसे ‘स्नेह’ कहा जाता है।

ददाति प्रतिगृह्णाति गुह्यमाख्याति पृच्छति ।

भुङ्क्ते भोजयते चैव षड्विधं प्रीतिलक्षणम् ॥

अर्थ – देना, स्वीकारना, गुप्त बात बताना, पूछना, खाना और खिलाना – ये छ: प्रीति (प्रेम) के लक्षण हैं।

दानाय लक्ष्मीः सुकृताय विद्या चिन्ता परं ब्रह्मविनिश्चयाय।

परोपकाराय वचांसि यस्य धन्यस्त्रिलोकीतिलकः स एव।।

भावार्थ- जो दान करने के लिए सम्पत्ति कमाता है । अच्छे काम करने के लिए विद्याध्ययन करता है । ब्रह्म के स्वरूप को पहचानने के लिए चिन्तन करता है। जिसकी वाणी परोपकार के लिए निकलती है । वास्तव में वही मनुष्य धन्य है। वही त्रिलोकी का तिलक है।

दीपो नाशयते ध्वान्तं धनारोग्ये प्रयच्छति |

कल्याणाय भवत्येव दीपज्योतिर्नमोऽस्तुते ||

भावार्थ – दीप प्रज्ज्वलित करने से अंधकार का नाश होता है , धन और आरोग्य की प्राप्ति होती है तथा सुख और समृद्धि भी प्राप्त होती है | हे दीपक ! हम तुम्हारे उज्ज्वल प्रकाश को नमन करते हैं |

 

नास्ति वेदसंमं शास्त्रं नास्ति शान्तिसमं सुखम् |

नास्ति सूर्यसमं ज्योतिर्नास्ति ज्ञानसमं धनम् ||

अर्थ – वेदों के समान श्रेष्ठ अन्य कोई धार्मिक ग्रन्थ नहीं हैं और न मानसिक शान्ति के समान अन्य कोई सुख है | सूर्य के समान प्रकाश उत्पन्न करने वाला संसार में अन्य कोई नहीं है तथा ज्ञान के समान अन्य और कोई धन या संपत्ति श्रेष्ठ नहीं होती है |

दूरे चित्सन् तडिदिवाति रोचसे । (ऋग्वेद १/९४/७)

अर्थ – परमात्मा दूर होकर भी बिजली की तरह समीप ही चमकता है ।

दूरादतिथयो यस्य गृहमायान्ति निर्वृताः।

गृहस्थः स तु विज्ञेयः शेषास्तु गृहरक्षिणाः॥

भावार्थ – जिसके घर पर दूर-दूर से और आनन्द से अतिथि आते हैं, वे ही सही मायने में गृहस्थ माने जाते हैं,बाकी सब तो केवल उनके घर के पहरेदार मात्र होते हैं ।

द्वौ अम्भसि निवेष्टव्यौ गले बद्ध्वा दृढां शिलाम् ।

धनवन्तमदातारं दरिद्रं चातपस्विनम् ।।

भावार्थ- दो प्रकार के लोगों के गले में पत्थर बांधकर जल में फेंक देना चाहिए।  वे व्यक्ति जो धनवान्  होते हुए भी दान नहीं करते और दूसरे वे जो गरीब होते है लेकिन कठिन परिश्रम नहीं करते।

धनलुब्धो ह्यसन्तुष्टोऽनियतात्माऽजितेन्द्रिय : ।

सर्वा एवापदस्तस्य यस्य तुष्टं न मानसम् ।।

अर्थ –जिसका चित्त सन्तुष्ट नहीं है, वैसा असन्तुष्ट धनलोभी,मन को वश में न करने से इन्द्रिय को भी जीत नहीं सकता है,उसको सब आपत्तियाँ घेरे रहती हैं ।

धनधान्य प्रयोगेषु विद्या सङ्ग्रहणे तथा।

आहारे व्यवहारे च त्यक्तलज्जः सुखी भवेत्॥

भावार्थ- धन धान्य के आदान प्रदान में, किसी से विद्या प्राप्ति में, भोजन तथा व्यवहार में लज्जा का परित्याग करने वाला सुखी होता है।

धर्मस्य दुर्लभो ज्ञाता सम्यग् वक्ता ततोऽपि च।

श्रोता ततोऽपि श्रद्धावान् कर्ता कोऽपि ततः सुधीः॥

भावार्थ – धर्म को जानने वाला दुर्लभ होता है, उससे भी दुर्लभ उसे श्रेष्ठ तरीक़े से बताने वाला, उससे दुर्लभ श्रद्धा से सुनने वाला और सबसे दुर्लभ धर्म का आचरण करने वाला सुबुद्धिमान् है ।

ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते ।

संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥

क्रोधाद्‍भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः ।

स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥

भावार्थ – विषयों का चिन्तन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है, आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है।  क्रोध से अत्यन्त मूढ़ भाव उत्पन्न हो जाता है, मूढ़ भाव से स्मृति में भ्रम हो जाता है, स्मृति में भ्रम हो जाने से बुद्धि अर्थात् ज्ञानशक्ति का नाश हो जाता है और बुद्धि का नाश हो जाने से यह पुरुष अपनी स्थिति से गिर जाता है। (श्रीमद्भगवतगीता, अध्याय-२,श्लोक ६२-६३)

न कश्चित् कस्यचिन्मित्रं न कश्चित् कस्यचित् रिपु: ।

अर्थतस्तु निबध्यन्ते मित्राणि रिपवस्तथा।।

  भावार्थ- न कोई किसी का मित्र है और न ही शत्रु, कार्यवश ही लोग मित्र और शत्रु बनते हैं॥

नभोभूषा पूषा कमलवनभूषा मधुकरो

वचोभूषा सत्यं वरविभवभूषा वितरणम्।

मनोभूषा मैत्री मधुसमयभूषा मनसिजः

सद्वचो भूषा सूक्तिः सकलगुणभूषा च विनयः॥

भावार्थ – सूर्य आकाश का, भौंरा कमल वन का, सत्य वाणी का, दान श्रेष्ठ वैभव का, मैत्री मन का, कामदेव वसंत का और सद्वचन सूक्ति का भूषण है तथा विनय सभी गुणों का भूषण है।

न प्रहृष्यति सम्माने नापमाने च कुप्यति |

न क्रुद्धः परुषं ब्रूयात् स वै साधूतमः स्मृतः ||

भावार्थ – जो व्यक्ति सम्मानित किये जाने पर बहुत प्रसन्न नहीं होता है और न अपमानित किये जाने पर कुपित होता है, तथा यदि कभी क्रोधित हो भी जाये तो अपशब्द नहीं बोलता है ,वही साधु जनों मे सर्वोत्तम कहा जाता है |

न वृद्धिर्बहु मन्तव्या या वृद्धिः क्षयमावहेत् ।

क्षयोऽपि बहु मतव्यो यः क्षयो वृद्धिमावहेत् ।

अर्थ- जो वृद्धि भविष्य में नाश का कारण बने,उसे अधिक महत्व नहीं देना चाहिए और उस क्षय का भी बहुत आदर करना चाहिए, जो आगे चलकर अभ्युदय का कारण हो।

न अन्नोदकसमं दानं न तिथिद्वादशीसमा |

न गायत्त्र्याः परो मन्त्रो न मातुः परदैवतम् ||

भावार्थ – भूखे और प्यासे लोगों को अन्न और जल के दान के समान (बढ कर ) अन्य कोई दान नहीं है तथा द्वादशी के समान (पुण्यदायी ) कोई अन्य तिथि नहीं है | इसी प्रकार गायत्री मन्त्र के समान न कोई और मन्त्र है तथा अपनी माता के समान न कोई अन्य देवता हैं |

न कालो दण्डमुद्यम्य शिरः कृन्तति कस्यचित् |

कालस्य बलमेतावत् विपरीतार्थदर्शनम् ||

भावार्थ – काल ( भाग्य) किसी व्यक्ति को यदि सजा देता है तो किसी दण्ड (शस्त्र ) से न दे कर केवल उसकी बुद्धि भृष्ट कर देता है | उसकी शक्ति इसी में निहित है कि वह उस व्यक्ति की अपना भला बुरा समझने की शक्ति को ही नष्ट कर देता है जिस के फलस्वरूप वह हर बात का उलटा मतलब निकाल कर नष्ट हो जाता है।

न सा सभा यत्र न सन्ति वृद्धा ,वृद्धा न ते ये न वदन्ति धर्मम् ।

धर्म: स नो यत्र न सत्यमस्ति, सत्यं न तद् यच्छलमभ्युपैति ॥ (महाभारत उ. ३५.५८)

अर्थ -वह सभा सभा नहीं है जहां वृद्ध न हों, वे वृद्ध वृद्ध नहीं हैं जो धर्म की बात नहीं कहते, वह धर्म धर्म नही है जिसमें सत्य न हो और वह सत्य सत्य नहीं है जो छल का सहारा लेता हो ।

न परः पापमदत्ते परेषां पापकर्मणाम् ।

समयो रक्षितव्यस्तु सन्तश्चारित्रभूषणाः ॥

भुक्त्वा तृणानि शुष्कानि पीत्वा तोयं जलाशयात् ।

न हि कश्चित् विजानाति किं कस्य श्वो भविष्यति।

अतः श्वः करणीयानि कुर्यादद्यैव बुद्धिमान्॥

भावार्थ – कोई नहीं जानता है कि कल किसका क्या होगा इसलिए बुद्धिमान व्यक्ति कल करने योग्य कार्य को आज कर कर ले।

नाम्भोधिरर्थितामेति सदाम्भोभिश्च पूर्यते |

आत्मा तु पात्रतां नेयः पात्रमायान्ति संपदः |

भावार्थ – यद्यपि समुद्र ने जल की कभी कामना नहीं की और न हीं किसी से इस के लिये संपर्क किया परन्तु फिर भी वह सदा जल से भरा ही रहता है | इसी तरह यदि कोई व्यक्ति धर्म का पालन कर अपने को सुयोग्य बना ले तो उसे सुपात्र जान कर धन संपत्ति स्वयं ही उसके पास आ जाती है |

निष्णातोऽपि च वेदान्ते वैराग्यं नैति दुर्जनः |

चिरं जलनिधौ मग्नो मैनाक इव मार्दवम् || 

भावार्थ – दुष्ट व्यक्ति चाहे वेदों के ज्ञान में पारंगत भी हों , फिर भी वह वैराग्य (सांसारिक बन्धनों से दूर होना) की भावना से उसी प्रकार दूर (अछूते) रह जाता है जिस प्रकार चिरकाल से समुद्र से घिरा हुआ मैनाक पर्वत समुद्र के जल से सदैव अप्रभावित ही रहता है |

नीचानां सारशून्यानामुन्नतिं परिकल्पयन् ।

महतामपि दुर्मेधाः वेधाः शास्तीव नीचताम् ॥

पञ्चमेऽहनि षष्ठे वा शाकं पचते स्वे गृहे |

अनृणी चाऽप्रवासी च स वारिचर मोदते ||  सुभाषित रत्नाकर

भावार्थ – जिस व्यक्ति के घर में यद्दपि प्रत्येक पांचवे या छठे दिन (गरीबी के कारण ) केवल शाक ही भोजन के रूप में पकता हो , परन्तु उसके ऊपर यदि कोई ऋणं (कर्ज) न हो तथा वह परदेस में निवास करता हो तो ऐसा व्यक्ति जल में निवास करने वाले प्राणियों के समान संतुष्ट और प्रसन्न रहता है।

पञ्चेन्द्रियस्य मर्त्यस्य छिद्रं चेदेकमिन्द्रियम् ।

ततोऽस्य स्रवति प्रज्ञा दृतेः पात्रादिवोदकम् ॥

अर्थ :- मनुष्य की पाँचों इंद्रियों में यदि एक में भी दोष उत्पन्न हो जाता हैं,तो उस से उस मनुष्य की बुद्धि उसी प्रकार बाहर निकल जाती हैं ,जैसे मशक (जल भरने वाली चमड़े की थैली) के छिद्र से पानी बाहर निकल जाता हैं।

परवाच्येषु निपुण: सर्वो भवति सर्वदा।

आत्मवाच्यं न जानीते जानन्नपि च मुह्मति॥

अर्थात्- दूसरों के बारे में बोलने में सभी हमेशा ही कुशल होते हैं पर अपने बारे में नहीं जानते हैं, यदि जानते भी हैं तो गलत ही जानते है।

परिच्छेदो हि पांडित्यं यदापन्ना विपत्तय: ।

अपरिच्छेदकर्तृणां विपद: स्यु: पदे पदे ।।

भावार्थ – जब आपत्तियां आ पड़ती हैं तब कार्य और अकार्य का निर्धारण करना पांडित्य है । क्योंकि कार्य और अकार्य का निर्धारण न करने वालों को पग पग पर विपत्तियाँ झेलनी पड़ती हैं ।

परोऽपि हितवान् बन्धुः बन्धुरप्यहितः परः।

अहितो देहजो व्याधिः हितमारण्यमौषधम्॥

भावार्थ – रोग हमारे शरीर के भीतर रहते हुए हमारा अहित करती हैं तथा जंगल में रहने वाली औषधियाँ हमसे दूर रहकर भी भला करती हैं । अपना वंश या कुटुम्ब का न होते हुए भी जो हमारा हित करे वही वास्तव में बन्धु है और कुटुम्ब होते हुए भी हमारा अहित करे तो वह पराया होता है ।

परोपदेशवेलायां शिष्टाः सर्वे भवन्ति वै।

विस्मरन्तीह शिष्टत्वं स्वकार्ये समुस्थिते।।

अर्थात् – दूसरों के कष्ट में पड़ने पर हम उन्हें जो उपदेश देते हैं, स्वयं कष्ट में पड़ने पर उन्हीं उपदेशों को भूल जाते हैं।

परोपदेशे पाण्डित्यं सर्वेषां सुकरं नृणाम् ।

धर्मे स्वीयमनुष्ठानं कस्यचित्तु महात्मनः ॥

पानीयं वा निरायसं स्वाद्वन्नं वा भयोत्तरम् ।

विचार्य खलु पश्यामि , तत् सुखं यत्र निर्वृति : ।।

भावार्थ – बिना आयास के जल वा पीछे भय होने वाला अभीष्ट वा मधुर अन्न , मैं सोचता हूं जिसमें चित्त की शान्ति हो वह सुख है ।

पिबन्ति मधुपद्मेषु भृङ्गाः केसरधूसराः |

हंसाः शैवालमश्नन्ति धिग्दैवमसमञ्जसम् || -सुभाषित रत्नाकर

अर्थ – भंवरे (मधुमक्खियां ) तो कमल पुष्पों का रस पीती हैं और केसर के फूलों के पराग कणों से लिप्त रहती हैं , परन्तु दैव (भाग्य ) को धिक्कार है कि सुन्दर हंसों को पानी में उगे शैवाल (काई) से ही अपना पेट भरना पडता है |

पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने ।

पुत्रो रक्षति वार्धक्ये न स्त्री स्वातन्त्र्यमर्हति ॥

अर्थात्-  बचपन में पिता, जवानी में पति, बुढ़ापे में संतानें,  स्त्री की रक्षा  करते हैं । स्त्री कभी स्वतंत्र नहीं हो सकती।

पुस्तकस्था तु या विद्या ,परहस्तगतं च धनम् |

कार्यकाले समुत्तपन्ने न सा विद्या न तद् धनम् ||

अर्थ -पुस्तक में रखी विद्या तथा दूसरे के हाथ में गया धन—ये दोनों ही ज़रूरत के समय हमारे किसी भी काम नहीं आया करते।

पूर्वार्जितानि पापानि नाशमायान्ति यस्य वै।

सत्सङ्गतिर्भवेत्तस्य नान्यथा घटते हि सा।।

अर्थात्- जिनके पहले किए हुए पाप नष्ट हो गए हैं उन्हें ही सज्जनों से मित्रता होती है । विना पाप नष्ट हुए सत्पुरूषों से मित्रता नहीं होती।

पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि जलमन्नं सुभाषितम् |

मूढै: पाषाणखण्डेषु रत्नसंज्ञा प्रदीयते ||

भावार्थ – पृथ्वी पर तीन ही रत्न हैं जल अन्न और अच्छे वचन । फिर भी मूर्ख पत्थर के टुकड़ों को रत्न कहते हैं ।

प्रदोषे दीपक: चन्द्र:, प्रभाते दीपक: रवि:।

त्रैलोक्ये दीपक: धर्म:, सुपुत्र: कुलदीपक:।।

भावार्थ – संध्या काल में चन्द्रमा दीपक है। प्रभात काल में सूर्य दीपक है। तीनों लोकों में धर्म दीपक है और सुपुत्र कुल का दीपक है।

प्रभूतं कार्यमल्पं वा तन्नरः कर्तुमिच्छति।

सर्वारंभेण तत्कार्यं सिंहादेकं प्रचक्षते॥

भावार्थ – जिस प्रकार कोई शेर एकाग्रता के साथ झपट्टा मारकर पूरी ताकत के साथ अपना शिकार करता है और उसकी सफलता निश्चित होती है। ठीक उसी प्रकार हमें अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए भी लक्ष्य पर ध्यान केंद्र‍ित कर पूरे परिश्रम के साथ प्रयत्न करना चाहिए। कार्य चाहे, छोटा हो या बड़ा हो, हमें पूरा बल लगाकर ही करना चाहिए, तभी सफलता निश्चित हो जाती है।

प्रारभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीचैः प्रारभ्य विघ्नविहिता विरमन्ति मध्याः ।

विघ्नैः पुनः पुनरपि प्रतिहन्यमानाः, प्रारभ्य चोत्तमजनाः न परित्यजन्ति ।। (नीतिशतकम् 26)

भावार्थ – अधम श्रेणी के पुरुष विघ्नों के भय से किसी कार्य को आरम्भ ही नहीं करते । मध्यम श्रेणी के लोग कार्य को आरम्भ तो कर देते हैं, परन्तु विघ्नों के भय से विचलित होकर बीच में ही छोड देते हैं, किन्तु उत्तम श्रेणी के लोग विघ्नों के बार-बार उपस्थित होने पर भी आरम्भ किए हुए कार्य को पूरा किए बिना नहीं छोड़ते ।

बका हंसा भूत्वा कथमपि गता मानसजलं समे हंसा ज्ञात्वा कपटमपि मूका: समभवन्।

विरोधाभावात्ते द्विजपतिविलासे विलसिता: फलेनैते हंसा नयनजलपानव्यसनिन:।।

भावार्थ – बगुले हंस किसी तरह बनकर मानसरोवर के जल में चले गये। सभी हंसों ने इसका कपट समझकर भी चुप रह गये। विरोध के अभाव में वे बगुलों ने हंस के राजा जैसा विलास करने लगे। परिणाम यह हुआ कि सभी हंस अपना आँसू पीने को मजबूर हो गये।

बकवञ्चिन्तयेदर्थान् सिंहवच्च पराक्रमेत् ।

वृकवच्चाप्यलुम्पेत शशवच्च विनिष्पतेत् ॥ (महाभारतम् उद्योगपर्व ३६-१६)

भावार्थ – बगुले के समान अपने उद्दिष्ट पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए , सिंह के समान पराक्रम करना चाहिए , भेडिये के समान अचानक हमला करना चाहिए और खरगोश के समान पलायन करना चाहिए ।

बुद्धयो भयं प्रणुदति तपसा विन्दते महत्।

गुरुशुश्रूषया ज्ञानं शान्तिं योगेन विन्दति॥

अर्थात् :-  ज्ञान द्वारा मनुष्य का डर दूर होता है, तप द्वारा उसे ऊँचा पद मिलता है। गुरु की सेवा द्वारा ज्ञान प्राप्त होता है तथा योग द्वारा शांति प्राप्त होती है।

भद्रं भद्रमिति ब्रूयाद्भद्रमित्येव वा वदेत् ।

शुष्कवैरं विवादं च न कुर्यात्केनचित्सह ।।

भावार्थ – मनुष्य के लिये यही उचित है कि वह सर्वदा शुभ बातें ही कहे और यदि किसी कारणवश अशुभ बात कहनी ही पड़े तो शिष्ट शब्दों का ही प्रयोग करे तथा किसी व्यक्ति से बिना किसी कारण के वैर या विरोध भी नहीं करे।

भाग्यवन्तं प्रसूयेथा मा शूरं मा च पण्डितं |

शूरश्च कृतविद्याश्च वने सीदन्ति पाण्डवाः || -सुभषितरत्नाकर

भावार्थ – लोगों को भाग्यवान संतान उत्पन्न करनी चाहिये न कि शूर वीर और विद्वान संतान, क्योंकि शूर तथा विद्वान व्यक्तियों को सदैव कष्ट पूर्ण जीवन यापन करना पडता है जैसा कि शूर और विद्वान पाण्डवों को (अपना राज्य गंवा कर) वनवास का दुःख झेलना पडा था।

भावमिच्छति सर्वस्य नाभावे कुरुते मनः।

सत्यवादी मृदुर्दान्तो यः स उत्तमपुरुषः।। महाभारतम् उद्योगपर्व ३६-१६

भावार्थ – जो सबका कल्याण चाहता है, किसी के अकल्याण की बात मनमें भी नहीं लाता, जो सत्यवादी, कोमल और जितेन्द्रिय है, वह उत्तम पुरुष माना गया है।

भीमं वनं भवति यस्य पुरं प्रधानं सर्वो जनः स्वजनतामुपयाति तस्य।

कृत्स्ना च भूर्भवति सन्निधिरत्नपूर्णा यस्यास्ति पूर्वसुकृतं विपुलं नरस्य।।

भावार्थ – जिस मनुष्य के द्वारा पूर्व जन्मों में अत्यधिक पुण्य किये हुए होते हैं, उसके लिए भयंकर जंगल भी श्रेष्ठ नगर हो जाता है, सभी मनुष्य उसके अपने बन्धु-बान्धव हो जाते हैं और सम्पूर्ण पृथ्वी उसके लिए श्रेष्ठ निधियों और रत्नों से परिपूर्ण हो जाती है।

भोगे रोगभयं कुले च्युतिभयं वित्ते नृपालाद्भभयं

मौने दैन्यभयं बले रिपुभयं रूपे जरायाभयम् ।

शास्त्रे वादिभयं गुणे खलभयं काये कृतान्ताद्भयं

सर्वं वस्तु भयान्वितं भुवि नृणां वैराग्यमेवाभयम् ।। वैराग्यशतकम् ३१

भावार्थ – भोग करने पर रोग का भय, उच्च कुल में जन्म होने पर अपयश का भय, अधिक धन होने पर राजा का भय, मौन रहने पर दैन्य का भय, बलशाली होने पर शत्रुओं का भय, रूपवान् होने पर वृद्धावस्था का भय, शास्त्र में पारङ्गत होने पर वाद-विवाद का भय,गुणी होने पर दुर्जनों का भय, उत्तम शरीर होने पर यम का भय रहता है। इस संसार में सभी वस्तुएँ भय उत्पन्न करने वालीं हैं। केवल वैराग्य से ही लोगों को अभय प्राप्त हो सकता है।

मनसा चिन्तितं कार्यं  वचसा न प्रकाशयेत्।

अन्यलक्षितकार्यस्य  यत: सिद्धिर्न जायते॥

अर्थात्- मन से सोचे हुए कार्य को वाणी से किसी को भी न बतायें क्योंकि जिस कार्य पर किसी और की दृष्टि लग जाती है, वह फिर पूरा नहीं होता ।

मन्ये कालश्च भगवान्दैवं च विधिनिर्मितम्।

भवितव्यं च भूतानां यस्य नास्ति व्यतिक्रमः।।

अर्थात्- मेरी समझ में भगवान् काल, विधिनिर्मित दैव और समस्त प्राणियों की भवितव्यता अर्थात् इनके लिये होनेवाले घटना – ये तीनों ही प्रबल हैं, इनको कोई टाल नहीं सकता।

महाजनस्य संसर्गः कस्य नोन्नतिकारकः।

पद्मपत्रस्थितं तोयं धत्ते मुक्ताफलश्रियम् ॥

अर्थात् – महापुरुषों का सामीप्य भला किसके लिए लाभदायक नहीं होता, कहा गया है कि कमल के पत्ते पर पड़ी हुई पानी की बूँद भी मोती ही जैसी शोभा प्राप्त कर लेती है।

महानप्येकजो वृक्षो बलवान् सुप्रतिष्ठितः।

प्रसह्य एव वातेन सस्कन्धो मर्दितुं क्षणात्।।

अथ ये सहिता वृक्षाः सङ्घशः सुप्रतिष्ठिताः।

ते हि शीघ्रतमान् वातान् सहन्तेऽन्योन्यसंश्रयात्।।

महाभारतम् उद्योगपर्व ३६-६२/६३

भावार्थ –  बलवान्, दृढ़मूल तथा बहुत बड़ा होने पर भी अकेले वृक्ष को एक ही क्षण में आँधी के द्वारा बलपूर्वक शाखाओं सहित धराशायी किया जा सकता है। किन्तु जो बहुत-से वृक्ष एक साथ रहकर समूह के रूप में खड़े हैं, वे एक-दूसरे के सहारे बड़ी-से-बड़ी आँधी को भी सह सकते हैं।

मक्षिका व्रणमिच्छन्ति धनमिच्छन्ति पार्थिवाः ।

नीचाः कलहमिच्छन्ति सन्धिमिच्छन्ति साधवः ॥

भावार्थ – मक्खियां शरीर के घावों को चाहती हैं , जनसाधारण धन प्राप्ति की कामना करते हैं | नीच व्यक्ति झगडा करना पसंद करते हैं जब कि साधु व्यक्ति शान्ति पूर्वक सहवास की इच्छा करते हैं ।

मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः।

बन्धाय विषयासङ्गि मुक्त्यै निर्विषयं मनः ॥ -विष्णुपुराण – 6/7/

मूर्खस्य पञ्च चिन्हानि गर्वो दुर्वचनं तथा।

क्रोधश्च दृढवादश्च परवाक्येष्वनादरः॥

भावार्थ – मूर्खों के पाँच लक्षण हैं – गर्व, अपशब्द, क्रोध, हठ और दूसरों की बातों का अनादर॥

मृगा मृगैः संगमनुव्रजन्ति गावश्च गोभिस्तुरगास्तुरंगैः।

मूर्खाश्च मूर्खैःसुधयःसुधीभिः समानशीलव्यसनेषु सख्यम्॥

भावार्थ – मृग मृगों के साथ, गाय गायों के साथ, घोड़े घोड़ों के साथ, मूर्ख मूर्खों के साथ और बुद्धिमान बुद्धिमानों के साथ रहते हैं; समान आचरण और आदतों वालों में ही मित्रता होती है।

मृदोः परिभवो नित्यं वैरं तीक्ष्णस्य नित्यशः ।

उत्स्रृज्य तद्द्वयं तस्मान्मध्यां वृत्तिं समाश्रयेत् ।।

भावार्थ – बहुत विनम्र/ कोमल स्वभाव वाले व्यक्ति का हमेशा पराजय होता है। बहुत कठोर व्यवहार करने वाले का हर समय विवाद होता है। इसलिए, इन दोनों को छोड़ देना चाहिए और एक मध्य मार्ग का पालन करना चाहिए।

 य आत्मनाऽपत्रपते भृशं नरः स सर्वलोकस्य गुरुभर्वत्युत ।

 अनन्ततेजाः सुमनाः समाहितः स तेजसा सूर्य इवावभासते ॥

 भावार्थ – जो व्यक्ति अपनी मर्यादा की सीमा को नहीं लाँघता,वह पुरुषोत्तम समझा जाता है। वह अपने सात्विक प्रभाव, निर्मल मन और एकाग्रता के कारण संसार में सूर्य के समान तेजवान होकर ख्याति पाता है।

 यथा ह्येकेन चक्रेण न रथस्य गतिर्भवेत्।

 एवं पुरुषकारेण विना दैवं न सिध्यति॥

भावार्थ – जिस प्रकार एक पहिये वाले रथ की गति संभव नहीं है, उसी प्रकार पुरुषार्थ के बिना केवल भाग्य से ही कार्य सिद्धि नहीं होती ।

यथा खनन खनित्रेण नरो वार्यधिगच्छति |

तथा गुरुगतं विद्यां शुश्रूषुरधिगच्छति ||

भावार्थ – जिस तरह (धैर्य पूर्वक) जमीन को बेलचे /कुदाल से गहराई तक खोदने पर लोग भूमिगत जल का स्रोत पा जाते हैं, उसी प्रकार किसी योग्य गुरु से भी लगन और श्रद्धा पूर्वक उनकी सेवा कर के ही विद्या प्राप्त हो सकती है ।

 यथा धेनु सहस्रेषु वत्सो विन्दति मातरम्।

 एवं पूर्वकृतं कर्म कर्तारमनुगच्छति॥

 यदि सन्ति गुणाः पुंसां विकसन्त्येव ते स्वयं |

 न हि कस्तूरिकामोदः शपथेन विभाव्यते ||

भावार्थ – यदि किसी व्यक्ति में कुछ गुण होते है तो वे स्वयं फूलों के समान विकसित हो कर उसी तरह प्रकट हो जाते हैं जिस प्रकार कि कस्तूरी अपनी सुगन्ध से प्रसन्न कर स्वयं अपनी उपस्थिति प्रकट कर देती है और इस के लिये कोई कसम खाने की आवश्यकता नहीं होती है (अर्थात् उसका विज्ञापन नहीं करना पडता है )

यद् दूरं यद् दुराराध्यं यच्च दूरे व्यवस्थितम् ।

तत्सर्वं तपसा साध्यं तपो हि दुरतिक्रमम् ॥

अर्थात् :-कोई वस्तु चाहे कितनी ही दूर क्यों न हो, उसका मिलना कितना ही कठिन क्यों न हो और वह पहुँच से बाहर ही क्यों न हो, कठिन परिश्रम से उसे भी प्राप्त किया जा सकता है । इसलिए परिश्रम का कोई विकल्प हीं नही।

यन्मातापितरौ क्लेशं सहेते संभवे नृणाम्।

न तस्य निष्कृतिः शक्या कर्तुं वर्षशतैरपि ।।

भावार्थ – अपनी संतान के लालन पालन में माता और पिता जो कष्ट सहन करते हैं, उसका प्रत्युपकार सौ वर्षों तक उनकी सेवा करने से भी संभव नहीं है।

यान्ति न्यायप्रवृत्तस्य तिर्यञ्चोऽपि सहायताम् ।

अपन्थानं तु गच्छन्तं सोदरोऽपि विमुञ्चति ॥

भावार्थ – योग्य कार्य करनेवाले को पक्षी भी सहायता करते है, लेकिन अयोग्य दिशा मे जानेवाले से भाई भी विन्मुख होते है।

 यावत् भ्रियते जठरं तावत् सत्वं हि देहिनाम् |

 अधिकं योऽभिमन्येत स स्तेनो दण्डमर्हति ||  (मनुस्मृति )

अर्थ – जब तक सभी प्राणियों का उदर (पेट ) आहार ग्रहण करने की क्षमता रखता है तभी तक वे जीवित रहते हैं | अतः जो भी अपने उदर की क्षमता से अधिक पाने की इच्छा रखता है वह दूसरों के हक को छीनने वाले एक चोर के समान सजा दिये जाने के योग्य है |

यस्मिञ्जीवति जीवन्ति बहवः स तु जीवति ।

काकोऽपि किं न कुरुते चञ्च्वा स्वोदरपूरणम् ॥ सुभाषितरत्नभाण्डागारम् ॥

भावार्थ – जिस व्यक्ति के जीवित रहने के तरीके से बहुत से अन्य व्यक्तियों का जीवनयापन संभव होता है वे ही वास्तव में सच्चा जीवन जीते हैं ,अन्यथा एक साधारण कव्वा भी अपना पेट भरने के लिये अपनी चोंच से क्या क्या नहीं कर लेता है ?

यादृशैः संनिविशते यादृशांश्चोपसेवते।

यादृगिच्छेच्च भवितुं तादृग् भवति पुरुषः।। (महाभारतम् उद्योगपर्व ३६-१३)

भावार्थ – मनुष्य जैसे लोगों के साथ रहता है, जैसे लोगों की सेवा करता है और जैसा होना चाहता है, वैसा ही हो जाता है।

येषां न विद्या न तपो न दानं ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः।
ते मर्त्यलोके भुविभारभूता मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति ॥

भावार्थ – जिन लोगों के पास न तो विद्या है, न तप, न दान, न शील, न गुण और न धर्म. वे लोग इस पृथ्वी पर भार स्वरूप हैं और वे मनुष्य के रूप में जानवर की तरह से घूमते हैं।

ये केचिद् दु:खिता लोके सर्वे ते स्वसुखेच्छया।

ये केचित् सुखिता लोके सर्वे तेऽन्यसुखेच्छया॥

इस संसार में जो कोई भी दुखी हैं वे अपने सुख की इच्छा से ही दुखी हैं और इस संसार में जो कोई भी सुखी हैं वे दूसरों के सुख की इच्छा से ही सुखी हैं॥

यो भूतेष्वभयं दद्यात्भूतेभ्यस्तस्य नो भयम् ।

यादृग् वितीर्यते दानं तादृगासाद्यते फलम्।।

जो मनुष्य प्राणियों को अभय देता है, उसे प्राणियों से भय नहीं रहता । जैसा दान दिया जाता है, वैसा ही फल मिलता है।

 यो जन: कुरुते कार्यं लोककल्याणकारकम्।

 साफल्यं लभते नूनं सर्वत्रासौ महीयते।।

भावार्थ – जो व्यक्ति लोक के कल्याण के लिए कार्य करता है, वह निश्चित सफलता प्राप्त करता है और सर्वत्र प्रतिष्ठित हो जाता है।

राष्ट्रे यस्मिन् कलिर्दम्भः स्वार्थबुद्धिश्च जृम्भते।

विश्वासो न मिथः कश्चित् पतनं तस्य निश्चितम्।। विद्याधर नीतिरत्नस्य

 

राज्ञि धर्मिणि धर्मिष्ठा: पापे पापा: समे समा: ।
राजानमनुवर्तन्ते यथा राजा तथा प्रजा ॥

भावार्थ – राजा को धर्मात्मा होना चाहिये, पापी राजा के राज्य मे पाप फैल जाता है। प्रजा राजा का ही अनुसरण करती है । जैसा राजा होता है वेसी प्रजा होती है।

यः च मूढतमः लोके यः च बुद्धेः परं गतः l

तौ उभौ सुखमेधेते क्लिश्यन्ति अन्तरितो जनः ll

इस दुनिया में, केवल दो प्रकार के लोग खुश हैं – वे जो पूरी तरह से सुस्त और अज्ञानी हैं और जो बुद्धिमत्ता के पार हो गए हैं। अन्य सभी, बीच में, कष्टों से पीड़ित हैं।

लुब्धमनर्थे गृहीयात् क्रुद्धमञ्जलिकर्मणा |

मूर्खं छन्दानुवृत्या च तत्त्वार्थेन च पण्डितम् ||

भावार्थ – किसी लालची व्यक्ति को धन दे कर संतुष्ट (वश मे ) करना चाहिये तथा एक क्रोधी व्यक्ति को हाथ जोड कर उसका सम्मान कर के शान्त करना चाहिये | एक मूर्ख व्यक्ति को यह विश्वास दिला कर कि उसकी इच्छा पूरी कर दी जायेगी तथा एक पण्डित (विद्वान् व्यक्ति ) को सच बोल कर ही संतुष्ट करना चाहिये ।

लोकयात्रार्थमेवेह धर्मस्य नियमः कृतः ।

उभयत्र सुखोदर्कः इह चैव परत्र च ॥

भावार्थ – लोकव्यवहार सुचारु रुप से चले इस लिए ही धर्माचरण के नियम बनाए गयें हैं किन्तु इन नियमों का पालन करने से मनुष्य न केवल इस लोक में अपितु परलोक मे भी आनंद का अनुभव करता हैं ।

लोभेन बुद्धिश्चलति लोभो जनयते तृषाम् ।

तृषार्तो दु:खमाप्नोति परत्रेह च मानव: ।।

अर्थ –लोभ से बुद्धि चंचल होती है । लोभ तृष्णा को पैदा करता है धन की तृष्णा से पीड़ित मनुष्य इस लोक में तथा परलोक में दु:ख पाता है ।

लोभात्क्रोधः प्रभवति लोभात्कामः प्रजायते।

लोभान्मोहश्च नाशश्च लोभः पापस्य कारणम्।

भावार्थ – लोभ से क्रोध उत्पन्न होता है, लोभ से विषय भोग की इच्छा होती है और लोभ से मोह और नाश होता है, इसलिए लोभ ही पाप की जड़ है।

वने रणे शत्रुजलाग्निमध्ये महार्णवे पर्वतमस्तके वा |

सुप्तं प्रमत्ते विषमस्थितं वा रक्षन्ति पुण्यानि पुराकृतानि || – नीति शतक

भावार्थ – बहुत पहले (या पूर्वजन्म में भी )यदि किसी व्यक्ति ने धार्मिक आचरण द्वारा पुण्य अर्जित किये हों तो वे पुण्य सदैव उसकी रक्षा घने जंगलों में , युद्ध मे , शत्रुओं से, जल ओर अग्नि से , समुद्र के मध्य में , पर्वतों की चोटियों मे, निद्रित या नशे की अवस्था में तथा अन्य विपरीत परिस्थितियों में करते हैं ।

वरं वनं व्याघ्रगजेन्द्रसेवितं द्रुमालय: पत्रफलाम्बुभक्षणम् ।

तृणानि शय्या वसनं च वल्कलं न बन्धुमध्ये धनहीनजीवनम् ।

अर्थ –  जिस वन में पेड़ ही घर है ,पत्ते और फल का खाना और नदी का जल पीना है ,घास ही शय्या है और वल्कल ही वस्त्र है वैसा बाघ और हाथियों से सेवित वन कुछ प्रिय होता है । परन्तु भाई बन्धुओं के बीच में धन से हीन होकर जीना अच्छा नहीं ।

वरं मौनं कार्यं न च वचनमुक्तं यदनृतं,

वरं क्लैव्यं पुंसां न च परकलत्राभिगमनम् ।

वरं प्राणत्यागो न च पिशुनवाक्येष्वभिरुचि: ,

वरं भिक्षाशित्वं न च परधनास्वादनसुखम् ।

अर्थ –  मौन होना ( चुपचाप रहना ) कुछ प्रिय है ,परन्तु जो झूठ बोलना है वह अच्छा नहीं है । पुरुषों की नपुंसकता कुछ अच्छी है परन्तु परस्त्रीगमन अच्छा नहीं। प्राणों का त्याग कुछ प्रिय है परन्तु दुर्जनों के वाक्यों में रुचि रखना अच्छा नहीं । भीख माँग कर खाना कुछ प्रिय है परन्तु दूसरे के धन में आस्वादन का सुख अच्छा नहीं ।

वरं विभवहीनेन प्राणै: सन्तर्पितोsनल: ।

नोपचारपरिभ्रष्ट: कृपण: प्रार्थ्यते जन: ।।

भावार्थ – सम्पत्तिहीन पुरुष को अपने प्राणों से आग को तृप्त करना कुछ अच्छा है परन्तु सत्कार से भ्रष्ट कंजूस से प्रार्थना करना अच्छा नहीं।

वरं पर्वतदुर्गेषु भ्रान्तं वनचरैः सह।

न मूर्खजनसम्पर्कः सुरेन्द्रभवनेष्वपि।

अर्थ – दुर्गम पर्वतों में, जानवरों के साथ दिशाहीन भ्रमण भी श्रेष्ठ है । मूर्खजनों का सम्पर्क इन्द्रदेव के भवन में भी न हो ।

विद्या ददाति विनयं विनयाद्द्याति पात्रताम् |

पात्रत्वाद्धनमाप्नोति धनाद्धर्मं ततः सुखम् ||

भावार्थ – विद्या प्राप्त करने से व्यक्ति विनम्र हो जाता है और विनम्रता से योग्यता प्राप्त होती है | योग्यता से धन की प्राप्ति होती है तथा धन का सदुपयोग धार्मिक कार्यों में करने से अन्ततः सुख प्राप्त होता है |

विद्या मित्रं प्रवासेषु भार्या मित्रं गृहेषु च |

व्याधितस्यौषधं मित्रं  धर्मो मित्रं मृतस्य च ||

अर्थ – प्रवास के दौरान विद्या मित्र है,घर में पत्नी मित्र है, रोगी के लिए औषधि मित्र है, मृतक के लिए धर्म मित्र है।

विद्या रूपं कुरूपाणां क्षमा रूपं तपस्विनाम्।

कोकिलानां स्वरो रूपं स्त्रीणां रूपं पातिव्रतम्॥

भावार्थ – कुरूप व्यक्ति का सौन्दर्य उसकी विद्या है, तपस्वी का रूप क्षमा है, कोयल का रूप स्वर है और स्त्री का रूप उसका पति के प्रति सम्मान है ।

विद्याभ्यासस्तपो ज्ञानमिन्द्रियाणां च संयमः।

अहिंसा गुरुसेवा च निःश्रेयसकरं परम् ॥

अर्थ – विद्याभ्यास, तप, ज्ञान, इंद्रिय-संयम, अहिंसा और गुरुसेवा – ये परम् कल्याणकारक हैं ।

विद्वान्सः संशयात्मानो प्राकृता दृढनिश्याः।

मतमेकं हि मूर्खाणां विदुषाञ्च सहस्रशः।।

विपदि धैर्यमथाभ्युदये क्षमा, सदसि वाक्पटुता युधि विक्रमः।

यशसि चाभिरुचिर्व्यसनं श्रुतौ, प्रकृतिसिद्धमिदं हि महात्मनाम्।

अर्थ – आपदा में धीरज, बढ़ती में क्षमा, सभा में वाणी की चतुरता, युद्ध में पराक्रम, यश में रुचि और शास्र में अनुराग ये बातें महात्माओं में स्वाभाव से ही होती है।

विषादप्यमृतं ग्राह्यं बालादपि सुभाषितम्।।

अमित्रादपि सद्वृत्तम् अमेध्यादपि काञ्चनम्।।

भावार्थ – विष से भी अमृत, बच्चे से भी अच्छे वचन,शत्रु से भी सदाचार तथा अपवित्र स्थान से भी सोना ग्रहण करना चाहिए।

वितरति यावद्दाता तावत्सकलोऽपि भवति कलभाषी ।।

विरते पयसि घनेभ्यः शाम्यन्ति शिखण्डिनां ध्वनयः।।

भावार्थ – जब तक परोपकारी व्यक्ति दान कर रहा है, तब तक हर कोई सुखद आवाज के साथ बोलता है। (हालाँकि, जब वह गरीब हो जाता है या फिर दान नहीं कर रहा होता है, तो वे उसके बारे में इतने सुखद तरीके से नहीं बोलते हैं)। एक बार जब बादल पानी डालना बंद कर देते हैं (जब बारिश होना बंद हो जाती है) तो मोरों का रोना बंद हो जाता है।

वृष्टिभि: पूरिता ग्राम्या: नूनं क्षुद्रा: सरोवरा:।

तटं भित्वा प्रयान्तीव धनं प्राप्य खलो यथा।। (सूक्तिसौरभम्)

भावार्थ – वर्षा होने पर गांव के छोटे तालाब जल से भर जाते हैं और वे किनारे तोड़कर इधर – उधर बहने लगते हैं। जैसे खल व्यक्ति धनादि पाकर मर्यादा तोड़कर चलने लगता है।

शब्दार्णवे वयं मग्नाः केचिद्वैचित्र्यचित्रणे।

जीवनं विस्मृतं सर्वैः गेयं जीवनजीवनम्।। विद्याधर नीतिरत्नस्य

शकुनानामिवाकाशे मत्स्यानामिव चोदके ।

पदं यथा न दृश्येत तथा पुण्यकृतां गतिः ॥

भावार्थ – जैसे आकाश में पक्षियों के तथा जल में  मत्स्य इत्यादि जलचरों के पदचिह्न नहीं दिखाई देते ,वैसे ही ज्ञानियों की गति का ज्ञान नहीं होता।

शुचित्वं त्यागिता शौर्यं  सामान्यं सुखदुःखयोः ।

दाक्षिण्यं चानुरक्तिश्च सत्यता च सुहृद्गुणाः ॥

भावार्थ – प्रामाणिकता, औदार्य, शौर्य, सुख-दुःख में समरस होना, दक्षता, प्रेम, और सत्यता – ये मित्र के सात गुण हैं ।

शुभं करोति कल्याणं आरोग्यं धनसम्पदः ।

शत्रुबुद्धिविनाशाय दीपज्योतिर्नमोऽस्तु ते ।।

अर्थ – दीपक की ज्योति हमारे जीवन में सौभाग्य, कल्याण, स्वास्थ्य, धन सम्पत्ति देने वाली हो। अंधकार रुपी नकारात्मक शक्तियों का नाश करने वाली उस दीप की ज्योति को मैं नमन करता हूँ।

श्रोत्रं श्रुतेनैव न कुंडलेन दानेन पाणिर्न तु कंकणेन,

विभाति कायः करुणापराणां  परोपकारैर्न तु चन्दनेन ||

अर्थ – कानों की शोभा कुण्डलों से नहीं अपितु ज्ञान की बातें सुनने से होती है | हाथ दान करने से सुशोभित होते हैं न कि कंकणों से | दयालु / सज्जन व्यक्तियों का शरीर चन्दन से नहीं बल्कि दूसरों का हित करने से शोभा पाता है ।

शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्।

दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्।।

 अर्थ – शौर्य,तेज,धृति दक्षता,युद्ध से न भागना,दान और ईश्वर भाव क्षत्रिय के स्वभाव से उत्पन्न कर्म हैं।

स अर्थो यो हस्ते तत् मित्रं यत् निरन्तरं व्यसने |

तत् रूपं यत् गुणाः तत् विज्ञानं यत् धर्मः ||  हल सप्तशती

भावार्थ – वही सच्चा धन है जो अपने हाथ (अधिकार) में हो और वही सच्चा मित्र है जो हमेशा विपत्ति में भी साथ दे । रूपवान होना तभी शोभा देता है जब कि व्यक्ति गुणवान भी हो, तथा वही विज्ञान सही है जो धर्म के सिद्धान्तों के अनुसार (समाज के हित के लिये ) हो।

 सत्यानुसारिणी लक्ष्मीः कीर्तिस्त्यागानुसारिणी।

 अभ्याससारिणी विद्या बुद्धिः कर्मानुसारिणी॥

भावार्थ –लक्ष्मी सत्य का अनुसरण करती है, कीर्ति त्याग का अनुसरण करती है, विद्या अभ्यास का अनुसरण करती है और बुद्धि कर्म का अनुसरण करती है॥

 सत्याधारस्तपस्तैलं दयावर्ति: क्षमाशिखा।

 अंधकारे प्रवेष्टव्ये दीपो यत्नेन वार्यताम्॥

अर्थ – जब अंधकार प्रवेश कर रहा हो तो हम जो दिया जलाएं, उसका आधार सत्य का हो, उसमें तेल तप का हो, उसकी बत्ती दया की हो और लौ क्षमा की हो। आज समाज में फैले अंधकार को नष्ट करने के लिए ऐसा ही दीप प्रज्जवलित करने की आवश्यकता है।

सरस्वतीं देवयन्तो हवन्ते सरस्वतीमध्वरे तायमाने।

सरस्वतीं सुकृतो अह्वयन्त सरस्वती दाशुषे वार्यं दात् ॥ (ऋग्वेद,१०.१७.८)

भावार्थ – अपने इष्टदेव परमात्मा को चाहते हुए मुमुक्षुजन सरस्वती (वाणी) का सेवन करते हैं,विस्तृत किये हुये अध्यात्म-यज्ञ के निमित्त उस स्तुति वाणी को आश्रित करते हैं,पुण्यकर्मी स्तुतिवाणी का स्मरण करते हैं,वो स्तुतिवाणी आत्मसमर्पण करनेवाले के लिये रमणीय मोक्षपद देती है।

सर्पदुर्जनयोर्मध्ये वरं सर्पो न दुर्जनः।

सर्पो दशति कालेन दुर्जनस्तु पदे पदे॥

भावार्थ – सर्प और दुष्ट में से सर्प ज्यादा अच्छा है क्योंकि वह कभी-कभार ही डँसता है परन्तु दुर्जन तो  पग-पग पर प्रत्येक समय डँसता ही रहता है।

सर्वथा व्यवहर्तव्यं कुतो ह्यवचनीयता।

यथा स्त्रीणां तथा वाचां साधुत्वे दुर्जनो जनः।। उत्तररामचरितम् 1/5

भावार्थ –कैसे निर्दोषता हो ऐसा सभी प्रकार से व्यवहार करना चाहिए।  जैसे स्त्रियों के निर्दोषता बारे में वैसे वाणी के निर्दोषता बारे में ,क्योकि दुर्जन दोष देखने वाले होते हैं।

सर्वा: सम्पत्तयस्तस्यसन्तुष्टि यस्य मानसम् ।

उपानद्गूढपादस्य ननु चर्मावृतेव भू: ।।

अर्थ –  जिसका मन सन्तुष्ट है उसको सब प्रकार की संपत्तियाँ मिलती हैं ।जूतों से जिसके पैर ढके हुए हैं उसके लिए ज़मीन ही चमड़े से ढकी हुई होती है ।

सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति तपांसि सर्वाणि च यद्वदन्ति ।

यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण ब्रवीम्योमित्येतत् । । कठोपनिषद २ -२५

अर्थ – सभी वेद प्राप्त करने योग्य जिस प्रभु का कथन करते हैं, सभी तपस्वी जिसका उपदेश करते हैं, जिसे प्राप्त करने के लिए ब्रह्मचर्य का धारण करते हैं, उसका नाम ओम् है ।

सा श्रीर्या न मदं कुर्यात्स सुखी तृष्णायोज्झित: |

तन्मित्रं यत्र विश्वासः पुरुषः स जितेन्द्रियः ||

अर्थ – वही समृद्धि वास्तव में सही समृद्धि है जिस को पाने से व्यक्ति गर्वित नहीं हो जाता है और वही व्यक्ति सुखी है जिसने अपनी तृष्णा (किसी वस्तु को पाने की अत्यधिक इच्छा ) को जीत लिया हो | वही सच्ची मित्रता है जो आपसी विश्वास पर आधारित हो तथा वही व्यक्ति सही अर्थ में एक सज्जन पुरुष है जो जितेन्द्रिय (ज्ञानेन्द्रिय तथा कर्मेन्द्रियों को अपने वश में कर गलत आचरण न करने वाला ) हो |

सामर्थ्यमूलं स्वात्रन्त्र्यं श्रममूलं च वैभवम् |

न्यायमूलं स्वराज्यं स्यात् संघमूलं महाबलं ||

अर्थ – स्वतन्त्रता की प्राप्ति (और उसकी रक्षा) केवल शक्ति और सामर्थ्य होने से ही होती है और वैभव (धन संपत्ति और सर्वत्र खुशहाली ) भी श्रम करने से ही मिलता है | स्वराज्य का मूल कारण अच्छी न्यायव्यस्था का होना तथा किसी देश के अत्यन्त शक्तिशाली होने का मूल कारण उसके लोगों मे एकता और संगठन की भावना का होना है |

सामुद्रिकं वणिजं चोरपूर्वं शलाकधूर्तं च चिकित्सकं च ।

अरिं च मित्रं च कुशीलवं च नैतान् साक्ष्ये त्वधिकुर्वीत सप्त।।

महाभारतम् उद्योगपर्व ३५-४४

भावार्थ –  हस्तरेखा देखनेवाला, चोरी करके व्यापार करनेवाला, जुआरी, वैद्य, शत्रु, मित्र और नर्तक इन सातों को कभी भी गवाह नहीं बनाना चाहिए।

सुजनो न याति विकृतिं परहितनिरतो विनाशकालेSपि |

छेदेऽपि चन्दनतरुः सुरभयति मुखं कुठारस्य ||

अर्थ – दूसरों की भलाई करने में सदैव तत्पर रहने वाले सज्जन और उदार व्यक्तियों के स्वभाव में उनके सम्मुख मृत्यु संकट उपस्थित होने पर भी कोई विकृति (गिरावट) नहीं होती है और वे भलाई करना तब भी नहीं छोडते हैं जैसे कि एक चन्दन का वृक्ष काटे जाने के समय भी कुळ्हाडी की धार को अपनी सुगन्ध से भर

देता है |

सुजीर्णमन्नं सुविचक्षणः सुतः, सुशासिता स्री नृपति: सुसेवितः।

सुचिन्त्य चोक्तं सुविचार्य यत्कृतं,सुदीर्घकालेऽपि न याति विक्रियाम्।।

अर्थ – अच्छी रीति से पका हुआ भोजन, विद्यावान पुत्र, सुशिक्षित अर्थात आज्ञाकारिणी स्री, अच्छे प्रकार से सेवा किया हुआ राजा, सोच कर कहा हुआ वचन, और विचार कर किया हुआ काम ये बहुत काल तक भी नहीं बिछड़ते हैं।

सुभाषितेन गीतेन युवतीनां च लीलया ।

मनो न भिद्यते यस्य स वै योगीह्यथवा पशुः।।

शोकस्थानसहस्राणि भयस्थानशतानि च।

दिवसे दिवसे मूढमाविशन्ति न पण्डितम्।।

भावार्थ – सहस्रों शोक की और सैकड़ों भय की बातें मूर्ख पुरुष को दिन पर दिन दुख देती है, और पण्डित को नहीं।

संसारकटुवृक्षस्य द्वे फले ह्यमृतोपमे |

सुभाषितरसास्वादः सङ्गतिः सुजने जने ||   सुभाषित रत्नाकर

भावार्थ – इस संसार रूपी कडुवे वृक्ष में निश्चय ही दो फल ऐसे लगते हैं जो अमृत के समान रसीले और गुणकारी है, और वे हैं विद्वान तथा सज्जन व्यक्तियों द्वारा कहे गये प्रेरणादायक सुन्दर वचनों का रसास्वादन तथा ऐसे ही व्यक्तियों की संगति ( मित्रता और साथ) |

संसारविषवृक्षस्य द्वे एव रसवत्फले।

काव्यामृतरसास्वाद: संगम : सज्जनै: सह ।।

अर्थ – काव्य रूप अमृत के रस का आस्वादन और सज्जनों के साथ संगति ,ये दो संसार रूप विषवृक्ष के फल हैं ।

सं ग॑च्छध्वं॒ सं व॑दध्वं॒ सं वो॒ मनां॑सि जानताम् ।

दे॒वा भा॒गं यथा॒ पूर्वे॑ संजाना॒ना उ॒पास॑ते ॥

 स॒मा॒नो मन्त्र॒: समि॑तिः समा॒नी स॑मा॒नं मन॑: स॒ह चि॒त्तमे॑षाम् । स॒मा॒नं मन्त्र॑म॒भि म॑न्त्रये वः समा॒नेन॑ वो ह॒विषा॑ जुहोमि ॥ स॒मा॒नी व॒ आकू॑तिः समा॒ना हृद॑यानि वः । स॒मा॒नम॑स्तु वो॒ मनो॒ यथा॑ व॒: सुस॒हास॑ति ॥

स्वभावं न जहात्येव साधुरापदतोऽपि सन् |

कर्पूरः पावकस्पृस्तिः सौरभं लभतेतराम् ||

भावार्थ – सज्जन व्यक्ति अपना नैसर्गिक अच्छा स्वभाव किसी बडी आपदा के उपस्थित होने पर भी उसी प्रकार नहीं त्यागते जैसा कि कपूर आग के संपर्क में आ कर जल जाने पर और भी अधिक सुगन्ध देने लगता है |

स्वादानाद्वर्णसंसर्गात्त्वबलानां च रक्षणात् ।

बलं संजायते राज्ञः स प्रेत्येह च वर्धते ॥

स्वभावो नोपदेशेन शक्यते कर्तुमन्यथा।

सुतप्तमपि पानीयं पुनर्गच्छति शीतताम्।

भावार्थ – उपदेश देकर किसी के स्वभाव को बदला नहीं जा सकता, पानी को कितना भी गरम करो, कुछ समय बाद वह फिर से ठंडा हो ही जाता है।

स्थानम् एव नियोज्यन्ते भृत्याश्चाभरणानि च।

नहि चूडामणिः पादे नूपुरं मूर्ध्नि धार्यते॥

अर्थ – सेवक और आभूषण उनके यथा स्थान पर ही शोभाभिवृद्धि करते हैं, अत: यथोचित स्थान पर ही उपयोग में लाने चाहिये । जैसे शिर पर धारण करने योग्य मणि चरण में नही पहनना चाहिये और पैर के नूपुर शिर में धारण नही करना चाहिये ।

हृदि विद्ध इवात्यर्थं यथा  सन्तप्यते जनः।

पीडितो∙पि हि मेधावी न तां वाणीमुदीरयेत् ।।

भावार्थ –बुद्धिमान व्यक्ति पीडित होने पर भी उन शब्दों का उच्चारण न करे जिससे कोई दूसरा व्यक्ति इस तरह संतप्त हो जाय मानो उसे बींध डाला गया हो।

 

हंस श्वेतः बकः श्वेतः को भेदो बकहंसयोः।

नीरक्षीरविवेके तु हंसो हंसः बको बकः ॥

भावार्थ –यूँ तो हंस और बगुला दोनों का रंग श्वेत होता है, लेकिन जब दूध और पानी के मिश्रण में से दूध और पानी को अलग करने की बात आती है तो तब हंस और बगुले में अंतर का पता चलता है ।