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जगमगाते गहनों की पौराणिक गाथा एवं उसकी रोचक शोधपरक जानकारी
भारत के मसाले और अमूल्य धातुओं की समृद्धता पूरे विश्व में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखती है। यहां खान-पान के साथ-साथ गहनों के प्रति लगाव प्रसिद्ध है। पुरुषों के साथ-साथ महिलाओं की गहनों, जेवर, आभूषणों, अलंकारों के प्रति आसक्ति की एक अलग ही कहानी है।
गहनों के सबसे पुराने टुकड़े लगभग 1,00,000 साल पहले के थे, जो सिर्फ मोतियों की माला के थे। सजावटी और सजावटी प्रयोजनों के रूप में परोसे जाते थे। सबसे पुराने गहने कार्बनिक थे।
महाभारत के वनपर्व के 233वें अध्याय में सत्यभामा को दिए गए उपदेश में द्रौपदी कहती हैं- ‘महाराज युधिष्ठिर की जो दासियां थीं, वे हाथों में शंख की चूड़ियां, भुजाओं में बाजूबंद और कंठ में सुवर्ण का हार पहनकर बड़ी सज-धज के साथ रहती थीं। उनकी मालाएं एवं आभूषण बहुमूल्य थे। उनकी अंगकांति बहुत सुंदर थी। वे चंदन मिश्रित जल से स्नान करती थीं तथा मणि व सुवर्ण के गहने पहना करती थीं।’
संभव है कि दासियों के बारे में यह कथन अतिशयोक्ति हो लेकिन इतना तो स्पष्ट है कि कुलीन स्त्रियां ऐसे आभूषण अवश्य धारण करती थीं। 20वीं शताब्दी की शुरुआत में मोती की खेती की प्रक्रिया व्यावसायिक आधार पर शुरू हुई जिससे मोती की खेती संभव हो गई। इससे मोती आसानी से सभी के लिए सुलभ हो गए। आज भी बाजार में मिलने वाले लगभग सभी मोती सुसंस्कृत मोती हैं। इसके अलावा वे एकमात्र रत्न हैं, जो एक जीवित जानवर से आते हैं।
मुक्ताजाल- इसे रत्नावली या रत्नांजलि भी कहते हैं। यह मोतियों की लड़ी है, जो सिर के बालों पर आगे से पीछे तथा ललाट पर सामने से बालों को कसे रहती है। अजंता के भित्तिचित्रों में इसे देख सकते हैं। आजकल इसकी जगह सोने की एक लड़ी मांग के बीच में तथा दूसरी ललाट के बीच से दोनों तरफ रहती है। इसी से मांग-टीका लटकता है।
कुंडल- सर्वप्रिय कर्णाभूषण, मणिजटित या केवल सुवर्ण के पुरुष भी पहनते थे। आजकल भी कुछ नवयुवक पहनते हैं।
कर्णिका- झुमकी।
बाली- इसे कर्णवतंस भी कहा गया है। यह छोटी या 2 अंगुल व्यास की गोलाकार होती है। आजकल तो बड़ी-बड़ी बालियों का चलन है।
मौलि- शिरोभूषण (राम के संदर्भ में उल्लेख हो चुका है।)
मुकुट, किरीट- जनसाधारण के लिए नहीं, राजाओं व रानियों के लिए।
मुक्ताकलाप- एक लड़ी की मोतियों की माला। इसे एकावली भी कहा गया है। (कुमारसंभव में पार्वती के स्तनों पर सुशोभित)
इंद्रनील मुक्तामयी- मोतियों का हार जिसमें बीच-बीच में इंद्रनील होता है।
निष्क- यह स्वर्ण मनकों से निर्मित हार है लेकिन इसे गूगल के एक लेख में सिक्कों वाला हार बताया गया है।
हेमसूत्र (गले की चेन)- यह बहुत प्रचलित आभूषण है। इसी को छोटे-छोटे मूल्यवान रत्नों से अलंकृत करके तथा सुवर्ण का मणिजटित या सादा सजावटी लटकन (पेंडेंट) जोड़कर ‘मंगलसूत्र’ बना दिया गया है।
कंठा- यह चपटे भारी गोल या चौकोर सोने के बीड्स का गहना है। यह गले को घेरे रहता है, नीचे नहीं लटकता।
हार- यह स्त्रियों का सबसे प्रिय आभूषण है और इसकी इतनी किस्में हैं और उनके इतने नाम हैं कि उन्हें आभूषणों के व्यापारी भी नहीं जानते। वृहत्संहिता में 4 हाथ की 1008 मनकों की माला को इंदुछंद, 2 हाथ लंबी 504 मनकों के हार को विजयछंद, 108 मनकों की माला को हार, 81 मनकों की माला को देवछंद और 64 मनकों की माला को अर्द्धछंद कहा गया है। वासुदेव शरण अग्रवाल ने एक स्त्री की मृण्मूर्ति के गले में 27 मनकों की माला को ‘नक्षत्रमाला’ कहा है। हार जब लंबा हो तो उसे लंबनम् की संज्ञा दी गई है।
विजयंतिका- मोतियों और मणियों से जड़ा गले का गहना। (आजकल कुंदन कहते हैं।)
फलक हार- सोने की माला में बराबर दूरियों पर गुंथे हुए 3-3 या 5-5 रत्नों के फलक वाले हार का नाम।
हंसुली- यह गले को घेरने वाला गहना है। सामने मोटा और पीछे की ओर क्रमश: पतला होता जाता है। देहात की गरीब औरतें चांदी की हंसुली पहनती हैं। इधर हाल में कुछ अभिनेत्रियों ने फिर इसे पुनर्जीवित किया है।
केयूर (बाजूबंद)- तरह-तरह के बाजूबंदों का उल्लेख मिलता है। उनमें मायूर-केयूर भी था जिस पर मोर की आकृति बनी होती थी।
अंगद- सोने का सर्पाकार कड़े जैसा भुजाओं में पहना जाने वाला आभूषण जिसे स्त्री-पुरुष दोनों पहनते हैं।
वलय- कलाई में पहनने का कड़ा।
कंकण- कलाइयों में पहने जाने वाला। चूड़ियों के अगल-बगल तथा उनके बीच में कंगनों की शोभा और बढ़ जाती है।
अंगुलीय (मुद्रिका)- अंगूठियां रत्नजटित सुवर्ण की या केवल सुवर्ण की होती हैं। तक्षशिला से सोने, चांदी, तांबे, लोहे, पत्थर और शंख की तमाम मुद्रिकाएं मिली हैं।
चूड़ियां- सोने, हाथीदांत, शंख और शीशे की।
मेखला- यह कई लड़ियों वाली होती है और कमर पर नाभि के नीचे बांधी जाती है। इसे कमरबंद, करधनी या किंकिणी भी कहते हैं। इससे छोटी-छोटी घंटियां भी जुड़ी रहती हैं। मानस में पुष्प वाटिका प्रसंग में ‘कंकन किंकिनि नूपुर धुनि सुनि’ वाली चौपाई प्रसिद्ध ही है।
नूपुर- चांदी के, सुहागिन स्त्रियों का चिह्न।
सांकल या छागल- चांदी के तारे छल्ले। दोनों पैरों में कई-कई पहने जाते। इन्हें छाड़ा भी कहते हैं।
मंजीर- पैरों में पहनी जाने वाली पाजेब, जो छोटी घंटियों ये युक्त होती है। (बिहारी लाल ने विपरीत-रति वाले दोहे में ‘करै कोलाहल किंकिनी गह्यो मौन मंजीर’ लिखकर रसिकजन का मनोरंजन किया है।)
वैकक्ष- 2 लंबी लड़ियां मोतियों की वक्ष पर एक-दूसरे को काटती हुई।