सड़कों का महाराजा कहलाती थी यह स्वदेशी कार, पीएम से लेकर आम आदमी की थी सवारी

आज की युवा पीढ़ी निश्चित तौर पर उस एहसास की गहराई को नहीं समझ सकती है, जो उस कार के साथ या कहें कि लाल बत्ती वाली सफेद एंबेसडर के साथ मिलने वाले अधिकार और महत्व से जुड़ी है। वह वर्ष 1958 था जब हिंदुस्तान मोटर्स ने भारत और यहां के लोगों के लिए पहली बार सड़कों पर एंबेसडर कार उतारी थी। मेक इन इंडिया पहल के शुरू होने से करीब आधी सदी पहले देश में एंबेसडर कार लॉन्च की गई थी जो सही मायने में मेक इन इंडिया का प्रतिरूप था।

यह एक ऐसी कार थी जो वास्तव में काफी मजबूत थी और कुछ भी सहन कर सकती थी। साथ ही इसके रखरखाव के लिए किसी विशेष ज्ञान की भी ज़रूरत नहीं थी। दरअसल, उस समय मज़ाक में कहा जाता था कि एक बच्चा भी एंबेसडर रिपेयर कर सकता है। शायद उस समय कुछ विशेष बातें दिमाग में रखते हुए यह कार बनाई गई थी जैसे एक ऐसी कार जो बेहद कुशल हो, गड्ढों से भरी सड़कों को भी झेल सके और परिवार के सारे सदस्य एक साथ सवारी कर सकें। 

यह जानना काफी दिलचस्प है कि मूल एंबेसडर को मॉरिस ऑक्सफोर्ड श्रृंखला III मॉडल पर तैयार किया गया था, जिसे मॉरिस मोटर्स लिमिटेड ने 1956 से 1959 के बीच ब्रिटेन के काउली में बनाया था। 1,489 सीसी इंजन के साथ, यह भारत में डीजल इंजन वाली पहली कार थी। कुल मिलाकर, भारतीयों ने कार की सात पीढ़ियां देखी हैं, जिसमें पहले को मार्क -1 और अंतिम में एनकोर नाम दिया गया, जिसे BS-IV इंजन मानकों के साथ बनाया गया था। भारत में राज्य और अधिकारियों के साथ एंबेसडर का रिश्ता और भी ज़्यादा गहरा रहा है। इस मजबूत चार पहिया गाड़ी को पूरी तरह से एक नई पहचान मिली जब इसके छत पर एक लाल बत्ती लगाना शुरू किया गया था।

प्रधानमंत्री हो, राजनेता या फिर कोई अधिकारी, कई दशकों तक उनके लिए एंबेसडर ही आधिकारिक वाहन का स्वभाविक विकल्प रहा। इसके एक प्रिंट विज्ञापन में कहा गया था, “हम अभी भी असली नेताओं की प्रेरक शक्ति हैं।”

यह बदलाव दिवंगत प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के समय हुआ जब उन्होंने 2003 में एंबेसडर की जगह बीएमडब्ल्यू को चुना। यह एक ऐसा कदम था जिसने कई लोगों को स्तब्ध कर दिया और एक नई कहानी की शुरूआत की। अगर राजनीति की बात करें, तो पंडित नेहरू के प्रधानमंत्री बनने के समय से जुड़ा एक बेहद दिलचस्प किस्सा है। नेहरू आमतौर पर रोज़मर्रा की यात्रा के लिए भारतीय-निर्मित कारों का इस्तेमाल करते थे लेकिन जब वह हवाई अड्डे से किसी विदेशी राष्ट्राध्यक्षों और गणमान्य व्यक्तियों को लेने जाते थे , तो कैडिलैक में यात्रा करते थे। यह बात तत्कालीन विदेश मंत्री, लाल बहादुर शास्त्री को काफी चकित करती थी। एक दिन उन्होंने नेहरू से गाड़ी बदलने का कारण पूछा। नेहरू ने जवाब देते हुए कहा, “ऐसा इसलिए करते हैं ताकि बाहर से आने वालों को यह बताया जा सके कि भारतीय प्रधानमंत्री भी कैडिलैक में घूम सकते हैं।”

हालांकि, जब 1964 में शास्त्री ने भारत की कमान संभाली, तो वह एंबेसडर के साथ ही बने रहे। यहां तक कि जब वह विदेशी गणमान्य व्यक्ति को भी लेने जाते थे तो भी एंबेसडर में ही जाते थे। यह पूछे जाने पर कि उन्होंने नेहरू की प्रथा का पालन क्यों नहीं किया, उन्होंने कहा, “पंडित नेहरू एक महान व्यक्ति थे, और उनका अनुकरण करना मुश्किल है। मुझे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि विदेशी गणमान्य व्यक्ति क्या सोचते हैं जब तक कि वो यह जानते हैं कि भारतीय प्रधानमंत्री एक कार में यात्रा कर रहे हैं जो भारत में बनी है।”

1990 के दशक के मध्य तक, दुनिया भर के ऑटोमोबाइल उद्योग भारत में आने लगे और एक समय में जिस बाज़ार वर्चस्व का मज़ा एंबेसडर लेती थी, वहां धीरे-धीरे मारुति जैसी छोटी और आसानी से प्रबंधनीय कारों ने अपना रास्ता बनना शुरू कर दिया। जैसा कि हर शानदार नाटक के बाद पर्दा गिरता है, एंबेसडर के लिए भी वह समय आया। आधिकारिक कार और टैक्सियों को छोड़कर, अब सड़कों पर काफी कम एंबेसडर दिखती हैं। 

आखिरकार, 2014 में हिंदुस्तान मोटर्स ने एंबेसडर का उत्पादन समाप्त कर दिया। हालांकि इससे पहले ‘अम्बी’ नाम से अधिक कॉम्पैक्ट और शानदार वर्जन में कार को रीब्रांड करने की कोशिश की थी जो असफल रहा था। यह कहना गलत नहीं होगा जितना महत्व ‘भारतीय सड़कों का राजा’ माने जाने वाली एंबेसडर को प्राप्त हुआ है, वैसी अहमियत शायद ही किसी और कार या गाड़ी को मिल सके। 

एंबेसडर, एक कार जो आजादी के बाद के भारत का स्थायी प्रतीक बन गई थी, वह हमेशा हम सभी की स्मृति में बनी रहेगी।