गीता(Gita): कब और किसने की इसकी रचना?

हिन्दू धर्म में गीता को बेहद पवित्र ग्रंथ माना जाता है। महाभारत काल में रचे गए इस ग्रंथ को जीवन का सार समझा जाता है। गीता में कुल अठारह अध्याय तथा सात सौ से ज्यादा श्लोक हैं। गीता पूर्णतः अर्जुन और उनके सारथी श्रीकृष्ण के बीच हुए संवाद पर आधारित पुस्तक है। गीता में ज्ञानयोग, कर्म योग, भक्ति योग, राजयोग, एकेश्वरवाद आदि की बहुत सुन्दर ढंग से चर्चा की गई है। इसमें आत्मा के देह त्यागने, मोक्ष प्राप्त करने तथा दूसरा शरीर धारण करने की प्रक्रिया का पूर्ण वर्णन किया गया है। आज के संदर्भ में अगर बात करें तो गीता मनुष्य को कर्म का महत्त्व समझाती है। गीता में श्रेष्ठ मानव जीवन का सार बताया गया है। 

कब और किसने की गीता की रचना

हिन्दू ग्रंथ महाभारत के रचयिता महर्षि वेदव्यास हैं और गीता महाभारत का ही एक हिस्सा है। माना जाता है कि चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में गीता की रचना की गई थी हालांकि इसका कोई प्रमाण नहीं है। 

क्यों जरूरत पड़ी गीता की?

कौरव और पांडवों के बीच हो रहे धर्म युद्ध में जब अर्जुन अपने सगे-संबंधियों को अपने खिलाफ युद्ध भूमि में देख विचलित हो उठे तब भगवान कृष्ण ने उन्हें गीता का उपदेश देकर कर्म के महत्त्व को समझाया। गीता के 18 पाठ में संजय कुरुक्षेत्र में हो रही घटनाओं का वर्णन कर धृतराष्ट्र को बताते हैं। जिसमें भयभीत और भटके हुए अर्जुन का श्रीकृष्ण ज्ञान द्वार मार्गदर्शन करते है। गीता केवल अर्जुन के लिए ही नहीं बल्कि प्रत्येक मानव के लिए प्रासंगिक है। 

गीता के मुख्य पात्र 

गीता के मुख्य पात्र अर्जुन, सारथी और गुरु के रूप में श्रीकृष्ण, धृतराष्ट्र के सलाहकार के रूप में संजय तथा कुरु के राजा धृतराष्ट्र हैं। पूरी गीता में यही चार पात्र आपस में बात करते हैं।

गीता का आधार – संवाद 

गीता में कुरुक्षेत्र युद्ध के आरंभ की स्थिति का वर्णन किया गया है। यह पूर्णतः संजय और राजा धृतराष्ट्र के बीच हुए संवाद पर आधारित है।

गीता ध्यानम् 

गीता ध्यानम् भगवत् गीता का भाग नहीं है। परंतु इसे गीता में एक उपसर्ग के रूप में देखा जाता है। इसमें कुल 9 श्लोक हैं जिसे गीता का पाठ शुरू करने से पहले पढ़ा जाता हैं। इन श्लोकों में गीता की उपयोगिता के विषय में बताया गया है।

गीता के 18 अध्याय 

पहला पाठ– गीता का पहला अध्याय अर्जुन-विषाद योग है। इसमें 46 श्लोकों द्वारा अर्जुन की मनःस्थिति का वर्णन किया गया है। इसमें बताया गया है कि किस तरह अर्जुन अपने सगे-संबंधियों से युद्ध करने से डरते हैं और किस तरह भगवान कृष्ण उन्हें समझाते हैं?

दूसरा पाठ– गीता के दूसरे अध्याय “सांख्य-योग” में कुल 72 श्लोक हैं। जिसमें श्रीकृष्ण, अर्जुन को कर्मयोग, ज्ञानयोग, संख्ययोग, बुद्धि योग और आत्म का ज्ञान देते हैं। यह अध्याय वास्तव में पूरी गीता का सारांश है। इसे बेहद महत्त्वपूर्ण भाग माना जाता है।

तीसरा पाठ- गीता का तीसरा अध्याय कर्मयोग है, इसमें 43 श्लोक हैं। इसमें श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हैं कि परिणाम की चिंता किए बिना हमें हमारा कर्म करते रहना चाहिए।

चौथा पाठ- ज्ञानकर्म संन्यास योग गीता का चौथा अध्याय है, जिसमें 42 श्लोक हैं। इसमें श्रीकृष्ण, अर्जुन को बताते हैं कि धर्मपरायण के संरक्षण और अधर्मी के विनाश के लिए गुरु का अत्यधिक महत्त्व होता है।

पांचवा पाठ- कर्म संन्यास योग गीता का पांचवां अध्याय है, जिसमें 29 श्लोक हैं। इसमें अर्जुन, श्रीकृष्ण से पूछते है कि कर्मयोग और ज्ञान योग दोने में से उनके लिए कौन-सा उत्तम है। तब श्रीकृष्ण कहते है कि दोनों का लक्ष्य एक है, परंतु कर्म योग अभिनय के लिए बेहतर है।

छठा पाठ- आत्मसंयम योग गीता का छठा अध्याय है, जिसमें 47 श्लोक हैं। इसमें श्रीकृष्ण, अर्जुन को अष्टांग योग के बारे में बताते हैं। वह बताते है कि किस प्रकार मन की दुविधा को दूर कर महारथ प्राप्त किया जा सकता हैं।

सातवाँ पाठ- ज्ञानविज्ञान योग गीता का सातवां अध्याय है, जिसमें 30 श्लोक हैं। इसमें श्रीकृष्ण निरपेक्ष वास्तविकता और उसके भ्रामक ऊर्जा “माया” के बारे में अर्जुन को बताते हैं।

आठवाँ पाठ- गीता का आठवां अध्याय अक्षरब्रह्मयोग है, जिसमें 28 श्लोक हैं। गीता के इस पाठ में स्वर्ग और नरक का सिद्धांत शामिल है। इसमें मृत्यु से पहले व्यक्ति की सोच, अध्यात्मिक संसार तथा नरक और स्वर्ग जाने की राह के बारे में बताया गया है।

नौवां पाठ- राजविद्याराजगुह्य योग गीता का नवां अध्याय है, जिसमें 34 श्लोक हैं। इसे श्रीकृष्ण की आंतरिक ऊर्जा सृष्टि को व्याप्त बनाता है, उसका सृजन करता है और पूरे ब्रह्मांड को नष्ट कर देता है, यह बताया गया है।

दसवाँ पाठ- विभूति योग गीता का दसवां अध्याय है जिसमें 42 श्लोक हैं। इसमें श्रीकृष्ण अर्जुन को यह बताते हैं कि किस प्रकार सभी तत्त्वों और आध्यात्मिक अस्तित्व के अंत का कारण बनते हैं।

ग्यारहवाँ पाठ- विश्वरूपदर्शन योग गीता का ग्यारहवां अध्याय है जिसमें 55 श्लोक है। इस अध्याय में अर्जुन के निवेदन पर श्रीकृष्ण अपना विश्वरुप धारण करते हैं।

बारहवाँ पाठ- भक्ति योग गीता का बारहवां अध्याय है जिसमें 20 श्लोक हैं। इस अध्याय में कृष्ण भगवान भक्ति के मार्ग की महिमा अर्जुन को बताते हैं। इसके साथ ही वह भक्तियोग का वर्णन अर्जुन को सुनाते हैं।

तेरहवाँ पाठ- क्षेत्रक्षत्रज्ञविभाग योग गीता तेरहवां अध्याय है इसमें 35 श्लोक हैं। इसमें श्रीकृष्ण अर्जुन को ‘क्षेत्र’ और ‘क्षेत्रज्ञ’ के ज्ञान के बारे में तथा सत्त्व, रज और तम गुणों द्वारा अच्छी योनि में जन्म लेने का उपाय बताते हैं।

चौदहवाँ पाठ- गीता का चौदहवां अध्याय गुणत्रयविभाग योग है इसमें 27 श्लोक हैं। इसमें श्रीकृष्ण सत्त्व, रज और तम गुणों का तथा मनुष्य की उत्तम, मध्यम अन्य गतियों का विस्तारपूर्वक वर्णन करते हैं। अंत में इन गुणों को पाने का उपाय और इसका फल बताया गया है।

पंद्रहवाँ पाठ- गीता का पंद्रहवां अध्याय पुरुषोत्तम योग है, इसमें 20 श्लोक हैं। इसमें श्रीकृष्ण कहते हैं कि दैवी प्रकृति वाले ज्ञानी पुरुष सर्व प्रकार से मेरा भजन करते हैं तथा आसुरी प्रकृति वाला अज्ञानी पुरुष मेरा उपहास करते हैं।

सोलहवाँ पाठ- दैवासुरसंपद्विभाग योग गीता का सोलहवां अध्याय है, इसमें 24 श्लोक हैं। इसमें श्रीकृष्ण स्वाभाविक रीति से ही दैवी प्रकृति वाले ज्ञानी पुरुष तथा आसुरी प्रकृति वाले अज्ञानी पुरुष के लक्षण के बारे में बताते हैं।

सत्रहवाँ पाठ- श्रद्धात्रयविभाग योग गीता का सत्रहवां अध्याय है, इसमें 28 श्लोक हैं। इसमें श्रीकृष्ण अर्जुन को यह बताते हैं कि जो शास्त्र विधि का ज्ञान न होने से तथा अन्य कारणों से शास्त्र विधि छोड़ने पर भी यज्ञ, पूजा आदि शुभ कर्म तो श्रद्धापूर्वक करते हैं, उनकी स्थिति क्या होती है।

अठारहवाँ पाठ- मोक्ष-संन्यास योग गीता का अठारहवाँ अध्याय है, इसमें 78 श्लोक हैं। यह अध्याय पिछले सभी अध्यायों का सारांश है। इसमें अर्जुन, श्रीकृष्ण से न्यास यानि ज्ञानयोग का और त्याग यानि फलासक्तिरहित कर्मयोग का तत्त्व जानने की इच्छा प्रकट करते हैं।