शिकागो अमेरिका के विश्व धर्म सम्मेलन में आर्य विद्वान: पंडित अयोध्या प्रसाद

स्वामी विवेकानन्द जी का शिकागो पहुंचने, वहां विश्व धर्म संसद में व्याख्यान देने और उनके अनुयायियों द्वारा उनका व्यापक प्रचार करने का ही परिणाम है कि वह आज देश विदेश में लोकप्रिय हैं। आजकल प्रचार का युग है। जिसका प्रचार होगा उसी को लोग जानते हैं और जिसका प्रचार नहीं होगा वह महत्वपूर्ण होकर भी अस्तित्वहीन बन जाता है। स्वामी विवेकानन्द जी को अत्यधिक प्रचार मिलने के कारण वह प्रसिद्ध हुए और ऋषि दयानन्द भक्त पंडित अयोध्या प्रसाद जी को विश्व धर्म सभा और अमेरिका में प्रचार करने पर भी तथा उनके अनुयायियों द्वारा उनके कार्यों के प्रचार की उपेक्षा करने से वह इतिहास के पन्नों से किनारे कर दिए गये। 

पण्डित अयोध्या प्रसाद कौन थे और उनके कार्य और व्यक्तित्व कैसा था? 

पंडित अयोध्या प्रसाद एक अद्भुत वाग्मी, दार्शनिक विद्वान, चिन्तक व मनीषी होने के साथ शिकागो के विश्व धर्म सम्मेलन सहित कुछ अन्य देशों में वैदिक धर्म का प्रचार करने वाले प्रमुख आर्य विद्वानों में से एक थे। आपका जन्म 16 मार्च सन् 1888 को बिहार राज्य के गया जिले में नवादा तहसील के एक ग्राम ‘अमावा’ में हुआ था। आपके पिता बंशीधर लाल जी तथा माता श्रीमती गणेशकुमारी जी थी। आपके दो भाई और एक बहिन थी। पिता रांची के डिप्टी कमीश्नर के कार्यालय में एक बैंच टाइपिस्ट थे। आप अंग्रेजी, उर्दू, अरबी व फारसी के अच्छे विद्वान थे। कहा जाता है कि बंशीधर लाल जी को अंग्रेजी का वेब्स्टर शब्द कोश पूरा याद था। बचपन में पं. अयोध्या प्रसाद कुछ तांत्रिकों के सम्पर्क में आये जिसका परिणाम यह हुआ कि तन्त्र में आपकी रूचि हो गई और यह उन्माद यहां तक बढ़ा कि आप श्मशान भूमि में रहकर तन्त्र साधना करने लगे। आपकी इस रूचि व कार्य से आपके माता-पिता व परिवार जनों को घोर निराशा हुई। उन्होंने इन्हें इस कुमार्ग से हटाने के प्रयास लिए जो सफल रहे।

बालक की शिक्षा के लिए पिता ने एक मौलवी को नियुक्त किया जो अयोध्या प्रसाद जी को उर्दू, अरबी व फारसी का अध्ययन कराते थे। कुशाग्र बुद्धि होने के कारण इन भाषाओं पर आपका अधिकार हो गया और आप इन भाषाओं में बातचीत करने के साथ भाषण भी देने लगे। इन भाषाओं के संस्कार के कारण अयोध्या प्रसाद जी स्वधर्म से कुछ दूर हो गये और इस्लाम मत के नजदीक आ गये। महर्षि दयानन्द ने भी कहा है कि जो मनुष्य जिस भाषा को पढ़ता है उस पर उसी भाषा का संस्कार होता है। वैदिक धर्म की निकटता संस्कृत व हिन्दी के अध्ययन से ही हो सकती है, अन्यथा यह कठिन कार्य है। आपने उर्दू, फारसी व अरबी आदि भाषाओं का ज्ञान प्राप्त कर गनीमत उपनाम से इन भाषाओं में काव्य रचनायें करने लगे। आपका विवाह प्रचलित प्रथा के अनुसार 16 वर्ष की अल्प आयु में समीपवर्ती ग्राम लौहर दग्गा निवासी श्री गिरिवरधारी लाल की पुत्री किशोरी देवी जी के साथ सन् 1904 में सम्पन्न हुआ था। यह देवी विवाह के समय केवल साढ़े नौ वर्ष की थी।

पंडित अयोध्या प्रसाद जी ने अपने मित्र पं. रमाकान्त शास्त्री को अपने आर्यसमाजी बनने की कहानी बताते हुए कहा था कि उनका परिवार इस्लाम व ईसाईयत के विचारों से प्रभावित था। इसके परिणामस्वरूप मेरे पिता ने मुझे एक आलिम फाजिल मौलवी के मकतब में उर्दू और फारसी पढ़ने के लिए भरती किया था। एक दिन मेरे मामाजी ने कहा कि अजुध्या आज कल तुम क्या पढ़ रहे हो? अयोध्या प्रसाद जी ने मौलवी साहब की बड़ाई करते हुए इस्लाम की खूबियां बताईं। इसके साथ ही उन्होंने अपने मामा जी को हिन्दू धर्म की खराबियां भी बताईं जो शायद उन्हें मौलवी साहब ने बताईं होंगी या फिर उन्होंने स्वयं अनुभव की होंगी। पंडित जी के मामाजी कट्टर आर्यसमाजी विचारों को मानने वाले थे। मामा जी ने अयोध्या प्रसाद को महर्षि दयानन्द का लिखा हुआ सत्यार्थ प्रकाश ग्रन्थ दिया और कहा कि यदि तुमने इस पुस्तक को पढ़ा होता तो तुम हिन्दू धर्म में खराबियां न देखते और अन्य मतों में अच्छाईयां तुम्हें प्रतीत न होती। अपने मामाजी की प्रेरणा से अयोध्या प्रसाद जी ने सत्यार्थ प्रकाश पढ़ना आरम्भ कर दिया। पहले उन्होंने चौदहवां समुल्लास पढ़ा जिसमें इस्लाम मत की मान्यताओं पर समीक्षा प्रस्तुत की गई है। उसके बाद तेरहवां समुल्लास पढ़कर ईसाई मत का आपको ज्ञान हुआ। आपने अपने अध्यापक मौलवी साहब से इस्लाम मत पर प्रश्न करने आरम्भ कर दिये। पंडित जी के प्रश्न सुनकर मौलवी साहब चकराये। इस प्रकार पंडित अयोध्या प्रसाद को आर्यसमाज और इसके प्रवर्तक महर्षि दयानन्द का परिचय मिला और वह आर्यसमाजी बनें। महर्षि दयानन्द के भक्त पं. लेखराम की पुस्तक हिज्जूतुल इस्लाम को पढ़कर आपको कुरआन पढ़ने की प्रेरणा मिली और वह विभिन्न मतों के अध्ययन में अग्रसर हुए। पंडित जी ने सन् 1908 में प्रवेशिका परीक्षा उत्तीर्ण की। आगे की शिक्षा के लिए आपने हजारीबाग के सेंट कोलम्बस कालेज में प्रवेश लिया। यहां आप क्रान्तिकारियों के सम्पर्क में आ गये और देश को आजादी दिलाने की गतिविधियों में सक्रिय हुए। पिता ने इन्हें हजारीबाग से हटाकर भागलपुर भेज दिया जहां रहकर आपने इण्टरमीडिएट की परीक्षा सन् 1911 में उत्तीर्ण की। आपकी क्रान्तिकारी गतिविधियों से पिता रूष्ट थे। उन्होंने आपको अध्ययन व जीविकार्थ धन देना बन्द कर दिया। ऐसे समय में रांची के प्रसिद्ध आर्यनेता श्री बालकृष्ण सहाय ने पिता व पुत्र के बीच समझौता कराने का प्रयास किया। श्री बालकृष्ण सहाय की प्रेरणा से ही पंडित अयोध्या प्रसाद जी ने पटना के एक धुरन्धर संस्कृत विद्वान महामहोपाध्याय पडित रामावतार शर्मा से सस्कृत भाषा व हिन्दू धर्म के ग्रन्थों का गहन अध्ययन किया। संस्कृत ज्ञान व शास्त्र नैपुण्य के लिए आप अपने विद्या गुरु महामहोपाध्याय जी का कृतज्ञतापूर्वक स्मरण किया करते थे।

पटना से संस्कृत एवं हिन्दू ग्रन्थों का अध्ययन कर आप सन् 1911 में कलकत्ता पहुंचे और हिन्दू होस्टल में रहने लगे। यहीं पर पंजाब के प्रसिद्ध नेता डा. गोकुल चन्द नारंग एवं बाबू राजेन्द्र प्रसाद आदि छात्रावस्था में रहते थे। बाद में बाबू राजेन्द्र प्रसाद भारतीय राजनीति के शिखर पद पर पहुंचें। अयोध्याप्रसाद जी ने पहले तो प्रेसीडेन्सी कालेज में प्रवेश लिया और कुछ समय बाद सिटी कालेज में भर्ती हुए। यहां रहते हुए आपने इतिहास, दर्शन और धर्मतत्व का तुलनात्मक अध्ध्यन जैसे विषयों का गहन अवगाहन किया। वह अपने अध्ययन की पिपासा को दूर करने के लिए अन्य अनेक मतों के पुस्तकालयों में जाकर उनके साहित्य का अध्ययन करते थे और अपनी पसन्द का विक्रीत साहित्य भी क्रय करते थे। कलकत्ता में बिहार के छात्रों ने बिहार छात्रसंघ नामक संस्था का गठन किया जिसका अध्यक्ष बाबू राजेन्द्र प्रसाद जी को तथा मंत्री अयोध्या प्रसाद जी को बनाया गया। सन् 1915 में आपने बी.ए. उत्तीर्ण कर लिया। इसके बाद एम.ए. व विधि अथवा ला की परीक्षाओं का पूर्वार्द्ध भी उत्तीर्ण किया। इन्हीं दिनों आप कलकत्ता के आर्यसमाज के निकट सम्पर्क में आयें और यहां आपके नियमित रूप से व्याख्यान होने लगे। आपने यहां आर्यसमाज के पुरोहित एवं उपदेशक का दायित्व भी संभाल लिया। आपकी वाग्मिता, तार्किकता, आपके स्वाध्याय एवं शास्त्रार्थ कौशल से यहां के सभी आर्यगण प्रभावित होने लगे। स्वाध्याय की रूचि का यह परिणाम हुआ कि आपने बौद्ध, ईसाई और इस्लाम मत का विस्तृत व व्यापक अध्ययन किया। देश को आजादी दिलाने के लिए सन् 1920 में आरम्भ हुए असहयोग आन्दोलन में आपने सक्रिय भाग लिया। इसी साल कालेज स्कवायर में सत्यार्थ प्रकाश के छठे समुल्लास में प्रतिपादित राजधर्म पर भाषण करते हुए आप पुलिस द्वारा पकड़े गये और अदालत ने आपको डेढ़ वर्ष के कारावास का दण्ड सुनाया। आपने यह सजा अलीपुर के केन्द्रीय कारागार में पूरी की। जेल से रिहा होकर आप एक विद्यालय के मुख्याध्यापक बन गये।

पडित अयोध्या प्रसाद जी की यह इच्छा थी कि वह विदेशों में वैदिक धर्म का प्रचार करें। इस्लामिक देशों में जाकर वैदिक धर्म का प्रचार करने की भी उनकी तीव्र इच्छा थी। सन् 1933 में शिकागो में आयोजित विश्व धर्म सम्मेलन के अवसर पर उनकी विदेशों में जाकर धर्मप्रचार की इच्छा को पूर्ण करने का अवसर मिला। आर्यसमाज कलकत्ता और मुम्बई के आर्यो के प्रयासों से पं. अयोध्या प्रसाद जी को शिकागो के अन्तर्राष्ट्रीय धर्म सम्मेलन में वैदिक धर्म के प्रतिनिधि के रूप में भेजा गया। प्रसिद्ध उद्योगपति एवं सेठ युगल किशोर बिड़ला जी ने पंडित जी के शिकागो जाने में आर्थिक सहायता प्रदान की। जुलाई, 1933 में उन्होंने अमेरिका के लिए प्रस्थान किया। विश्व धर्म सम्मेलन में उनके व्याख्यान का विषय वैदिक धर्म का गौरव एवं विश्व शान्ति था।

आपने इस विषय पर विश्व धर्म संसद, शिकागो में प्रभावशाली भाषण दिया। वैदिक धर्म संसार का प्राचीनतम एवं ज्ञान–विज्ञान सम्मत धर्म है व कालावधि की दृष्टि से यह सबसे अधिक समय से चला आ रहा है। वेद की शिक्षायें सार्वजनीन एवं सार्वभौमिक होने से वैदिक धर्म का गौरव सबसे अधिक है। विश्व में शान्ति की स्थापना वैदिक ज्ञान व शिक्षाओं के अनुकरण व अनुसरण से ही हो सकती है। इस विषय का पं. अयोध्या प्रसाद जी ने विश्व धर्म सभा में अनेक तर्कों व युक्तियों से प्रतिपादन किया। पंडित जी का विश्व धर्म सभा में यह प्रभाव हुआ कि वहां सभा की कार्यवाही का आरम्भ वेदों के प्रार्थना मन्त्रों से होता था और समापन शान्तिपाठ से होता था। यह पण्डित अयोध्या प्रसाद जी की बहुत बड़ी उपलब्धि थी जिसकी इस कृतघ्न देश और आर्यसमाज में बहुत कम चर्चा हुई।  

इसी विश्व धर्म सभा में पंडित जी ने वैदिक व भारतीय अभिवादन ‘‘नमस्ते शब्द की बड़ी सुन्दर व प्रभावशाली व्याख्या की। उन्होंने कहा कि भारत के आर्य लोग दोनों हाथ जोड़कर तथा अपने दोनों हाथों को अपने हृदय के निकट लाकर नत मस्तक हो अर्थात् सिर झुकाकर ‘‘नमस्ते शब्द का उच्चारण करते हैं। इन क्रियाओं का अभिप्राय यह है कि नमस्ते के द्वारा हम अपने हृदय, हाथ तथा मस्तिष्क तीनों की प्रवृत्तियों का संयोजन करते हैं। हृदय आत्मिक शक्ति का प्रतीक है, हाथ शारीरिक बल का द्योतक हैं तथा मस्तिष्क मानसिक व बौ़द्धक शक्तियों का स्थान वा केन्द्र है। इस प्रकार नमस्ते के उच्चारण तथा इसके साथ सिर झुका कर व दोनों हाथों को जोड़कर उन्हें हृदय के समीप रखकर हम कहते हैं कि (With all the physical force in my arms, with all mental force in my head and with all the love in my heart, I pay respect to the soul with in you.) नमस्ते की इस व्याख्या का सम्मेलन के पश्चिमी विद्वानों पर अद्भुत व गहरा प्रभाव पड़ा।

पण्डित जी ने इस यात्रा में उत्तरी व दक्षिणी अमेरिका में वैदिक धर्म का प्रशंसनीय प्रचार किया। यहां प्रचार कर पण्डित जी ने गायना और ट्रिनिडाड में जाकर वैदिक धर्म की दुन्दुभि बजाई। ट्रिनीडाड में एक कट्टर सनातनी व पौराणिक व्यक्ति ने पण्डित अयोध्या प्रसाद जी को भोजन पर आमंत्रित किया। यह व्यक्ति अपनी अज्ञानता के कारण पण्डित जी को आर्यसमाज का विद्वान, प्रखर वाग्मी और उपदेशक होने के कारण उन्हें सनातन धर्म का विरोधी समझ बैठा और उसने पण्डित जी को भोजन में विष दे दिया। यद्यपि पण्डित जी भोजन का पहला ग्रास जिह्वा पर रखकर ही इसमें विषैला पदार्थ होने की सम्भावना को जान गये, उन्होंने शेष भोजन का त्याग भी किया परन्तु इस एक ग्रास ने ही पंडित जी के स्वास्थ्य व जीवन को बहुत हानि पहुंचाई। वह ट्रिनीडाड से लन्दन आये। विष का प्रभाव उनके शरीर पर था। उन्हें यहां अस्पताल में 6 माह तक भर्ती रहकर चिकित्सा करानी पड़ी। उनको दिए गये इस विष का प्रभाव जीवन भर उनके स्वास्थ्य पर रहा।

लन्दन से पंडित जी भारत आये और कलकत्ता को ही अपनी कर्मभूमि बनाया। आपके जीवन का शेष समय आर्यसमाज के धर्म प्रचार सहित स्वाध्याय, चिन्तन व मनन में व्यतीत हुआ।पण्डित जी के पास लगभग 25 हजार बहुमूल्य व दुर्लभ ग्रन्थों का संग्रह था। उन्होंने मृत्यु से पूर्व उसे महर्षि दयानन्द स्मृति न्यास टंकारा को भेंट कर दिया। अनुमान है कि उस समय उनके इन सभी ग्रन्थों का मूल्य दो लाख के लगभग रहा होगा। पंडित अयोध्या प्रसाद जी के अन्तिम दिन सुखद नहीं रहे। दुर्बल स्वास्थ्य और हृदय रोग से पीड़ित वह वर्षों तक कलकत्ता के 85 बहु बाजार स्थित निवास स्थान पर दुःख वा कष्ट भोगते रहे। 11 मार्च सन् 1965 को 77 वर्ष की आयु में वर्षों से शारीरिक दुःख भोगते हुए आपने नाशवान देह का त्याग किया। आपकी पत्नी का देहान्त आपकी मृत्यु से कुछ वर्ष पूर्व ही हो गया था।

पंडित जी के जीवन का अधिकांश समय स्वाध्याय, उपदेश व प्रवचनों आदि व्यतीत हुआ। उनका लिखित साहित्य अधिक नहीं है। यदि उन्हें व्याख्यानों आदि से अवकाश दिया जाता तो वह उत्तम कोटि के बहुमूल्य साहित्य की रचना कर सकते थे। उनके द्वारा रचित साहित्य में इस्लाम कैसे फैला?, ओम् माहात्म्य, बुद्ध भगवान वैदिक सिद्धान्तों के विरोधी नहीं थे, Gems of Vedic Wisdom ग्रन्थ हैं।

हमने इस लेख की सामग्री आर्य विद्वान डा. भवानी लाल भारतीय जी के लेखों सहित अन्य ग्रन्थों से ली है। उनका हार्दिक आभार एवं धन्यवाद करते हैं। स्वामी दयानन्द ने देश में वेदों व वैदिक धर्म संस्कृति का प्रचार किया। वह चाहते थे कि भूमण्डल पर वेदों का प्रचार हो। उन्हें विदेशी विद्वान मैक्समूलर की ओर से इंग्लैण्ड आकर वेद प्रचार करने का प्रस्ताव भी मिला था। परन्तु देश की दयनीय दशा के कारण वह विदेश न जा सके। यदि वह जाते तो थोड़े ही समय में अंग्रेजी भाषा सीख कर वहां प्रचार कर सकते थे। वहां के लोगों की सत्य के ग्रहण की शक्ति भारत के लोगों की तुलना में अच्छी है। आशा है कि वह महर्षि की भावना और वेदों के महत्व को उचित सम्मानदेते।

 आज हमें यह देखकर आश्चर्य होता है कि जितना प्रचार महर्षि दयानन्द सरस्वती अकेले देश में कर गये उसकी तुलना में आज विश्व में सहस्रों आर्यसमाजें व करोड़ों वेदानुयायियों के होने पर भी नहीं हो पा रहा है। यह समय की विडम्बना है या आर्यों का आलस्य प्रमाद?