सूर्य देव की जानकारी एवं पूजन विधि

भारत के सनातन धर्म में पांच देवों की आराधना का महत्व है। आदित्य (सूर्य), गणनाथ (गणेशजी), देवी (दुर्गा), रुद्र (शिव) और केशव (विष्णु)। इन पांचों देवों की पूजा सब कार्य में की जाती है। इनमें सूर्य ही ऐसे देव हैं जिनका दर्शन प्रत्यक्ष होता रहता  है। सूर्य के बिना हमारा जीवन नहीं चल सकता। सूर्य की किरणों से शारीरिक व मानसिक रोगों से निवारण मिलता है। शास्त्रों में सूर्य की उपासना का उल्लेख मिलता है। सूर्य नमस्कार का संबंध योग एवं प्राकृतिक चिकित्सा से भी जुड़ा हुआ है। सूर्य की ऊष्मा एवं प्रकाश से स्वास्थ्य में अभूतपूर्व लाभ होता है और बुद्धि की वृद्धि होती है। सूर्य नमस्कार की विधियां मुख्य रूप से हस्तपादासन, प्रसरणासन, द्विपाद प्रसरणासन, भू-धरासन, अष्टांग, प्रविधातासन तथा सर्पासन इन आसनों की प्रक्रियाएं अनुलोम-विलोम क्रम से की जाती हैं। सूर्य के प्रकाश एवं सूर्य की उपासना से कुष्ठ, नेत्र आदि रोग दूर होते हैं। सब प्रकार का लाभ प्राप्त होता है। अर्थात मनुष्य भगवान जनार्दन विष्णु से मोक्ष की अभिलाषा करनी चाहिए। सूर्य अशुभ होने पर उक्त राशि वाले को अग्निरोग, ज्वय बुद्धि, जलन, क्षय, अतिसार आदि रोगों से ग्रस्त होने की संभावना बढ़ती है।
 
पौराणिक सन्दर्भ में सूर्यदेव की उत्पत्ति के अनेक प्रसंग प्राप्त होते हैं। पुराणों अनुसार सूर्य देव के पिता का नाम महर्षि कश्यप व माता का नाम अदिति है। अदिति के पुत्रों को आदित्य कहा गया है। 33 देवताओं में अदिति के 12 पुत्र शामिल हैं जिनके नाम हैं- विवस्वान् (सूर्य), अर्यमा, पूषा, त्वष्टा, सविता, भग, धाता, विधाता, वरुण, मित्र, इंद्र और त्रिविक्रम (भगवान वामन)। 12 आदित्यों के अलावा 8 वसु, 11 रुद्र और 2 अश्विनकुमार मिलाकर 33 देवताओं का एक वर्ग है। ब्रह्माजी के पुत्र मरिचि से कश्यप का जन्म हुआ। कश्यप से विवस्वान और विवस्वान के पुत्र वैवस्त मनु थे। विवस्वान को ही सूर्य कहा जाता है।
 
विश्वकर्मा जी की पुत्री संज्ञा विवस्वान् की पत्नी हुई। उसके गर्भ से सूर्य देव ने तीन संतानें उत्पन्न की। जिनमें एक कन्या और दो पुत्र थे। सबसे पहले प्रजापति श्राद्धदेव, जिन्हें वैवस्वत मनु कहते हैं, उत्पन्न हुए। तत्पश्चात यम और यमुना- ये जुड़वीं संतानें हुई। यमुना को ही कालिन्दी कहा गया। भगवान् सूर्य के तेजस्वी स्वरूप को देखकर संज्ञा उसे सह नहीं पा रही थी अतः उन्होंने अपने ही सामान वर्णवाली अपनी छाया प्रकट की। वह छाया स्वर्णा नाम से विख्यात हुई। उसको भी संज्ञा ही समझ कर सूर्य ने उसके गर्भ से अपने ही सामान तेजस्वी पुत्र उत्पन्न किया। वह अपने बड़े भाई मनु के ही समान था। इसलिए सावर्ण मनु के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उस छाया से शनैश्चर (शनि) और तपती नामक कन्या हुई।
 
यम धर्मराज के पद पर प्रतिष्ठित हुए और उन्होंने समस्त प्रजा को धर्म से संतुष्ट किया। सावर्ण मनु प्रजापति हुए। आने वाले सावर्णिक मन्वन्तर के वे ही स्वामी होंगे। कहते हैं कि वे आज भी मेरुगिरि के शिखर पर नित्य तपस्या करते हैं। ऐसा भी कहा जाता है कि जब संज्ञा अपनी छाया छोड़कर स्वयं घोड़ी का रूप धारण करके तप करने लगी। भगवान सूर्य ने जब संज्ञा को तप करते देखा तो उसे पुन: अपने यहां ले आए। फिर संज्ञा के बड़वा (घोड़ी) रूप से अश्विनीकुमार हुए।
 
अदिति के पुत्र विवस्वान् से वैवस्वत मनु का जन्म हुआ। महाराज मनु को इक्ष्वाकु, नृग, धृष्ट, शर्याति, नरिष्यन्त, प्रान्शु, नाभाग, दिष्ट, करुष और पृषध्र नामक 10 श्रेष्ठ पुत्रों की प्राप्ति हुई। सूर्य के कई अन्य भी पुत्र थे। त्रेतायुग में कपिराज सुग्रीव और द्वापर में महारथी कर्ण भगवान सूर्य के अंश से ही उत्पन्न हुए माने जाते हैं। श्रीकृष्ण की माता देवकी ‘अदिति का अवतार’ बताई जाती हैं। भगवान सूर्य के परिवार की विस्तृत कथा भविष्य पुराण, मत्स्य पुराण, पद्म पुराण, ब्रह्म पुराण, मार्कण्डेय पुराण तथा साम्बपुराण में वर्णित है। सभी सूर्यवंशी उन्हीं की संतानें हैं। सूर्य देव के अन्य नाम रवि, दिनकर, दिवाकर, भानु, भास्कर, प्रभाकर, सविता, दिनमणि, आदित्य, अनंत, मार्तंड, अर्क, पतंग और विवस्वान हैं । रविवार की प्रकृति ध्रुव है। रविवार भगवान विष्णु और सूर्यदेव का दिन भी है। हिन्दू धर्म में इसे सर्वश्रेष्ठ वार माना गया है। अच्छा स्वास्थ्य व तेजस्विता पाने के लिए रविवार के दिन उपवास रखना चाहिए। ज्योतिष के कुछ ग्रंथों और पुराणों में इन्हीं सूर्य को सूर्य देव से जोड़कर भी देखा जाता है जबकि सूर्य देव का जन्म धरती पर ही हुआ माना जाता है। एक अन्य कथा के अनुसार कश्यप की पत्नी अदिति ने सूर्य साधना करके अपने गर्भ से एक तेजस्वीवान पुत्र को जन्म दिया था। यह भी कहा जाता है कि सूर्यदेव ने ही उन्हें उनके गर्भ से उत्पन्न होने के वरदान दिया था।
 
सूर्य देव 12 नामों का करें
1- ॐ सूर्याय नम:।
2- ॐ मित्राय नम:।
3- ॐ रवये नम:।
4- ॐ भानवे नम:।
5- ॐ खगाय नम:।
6- ॐ पूष्णे नम:।
7- ॐ हिरण्यगर्भाय नम:।
8- ॐ मारीचाय नम:।
9- ॐ आदित्याय नम:।
10- ॐ सावित्रे नम:।
11- ॐ अर्काय नम:।
12- ॐ भास्कराय नम:।
 

सूर्य देव का आवाहन

ॐ आ कृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यंच ।
हिरण्येन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन् ॥

ॐ जपाकुसुमसंकाशं काश्यपेयं महाद्युतिम ।
तपोऽरि सर्वपापघ्मं सूर्यमावाह्याम्यहम ॥

ॐ विश्वानिदेव सवितदुरितानी परासुव यदभद्र तन्न आसुव ॥

सूर्य देव का मंत्र

ॐ जपाकुसुमसंकाशं काश्यपेयं महाद्युतिम । तमोऽहि सर्वपापघ्नं सूर्यमावाह्याम्यहम ॥
ॐ विश्वानिदेव सवितदुरितानि परासुव यदभद्रं तन्न आसुव ॥

सूर्य देव का स्थापना

ॐ भूर्भुवः स्वः कलिङ्ग देशोभ्दव काश्यप गोत्र रक्तवर्ण भो सूर्य ।
इहागच्छ इह तिष्ठ सूर्याय नमः ।
श्रीसूर्यमावाह्यामि स्थापयामि ।

सूर्य देव का ध्यानम्

पद्मासनः पद्माकरो द्विबाहुः पद्मद्युतिः सप्ततुरङ्गोवाहनः । दिवाकरो लोकगुरु किरीटीमयि प्रसादं देवाः ॥
ॐ ग्रहणामादिरादित्यो लोकरक्षण कारकः । विषम स्थान सम्भूतां पीडां हरतु ते रविः ॥

सूर्य देव का बीज मंत्र

ॐ ह्रां ह्रीं ह्रौं सूर्याय नमः ।

सूर्य देव का तांत्रिक मंत्र

ॐ सूं सूर्याय नमः । किंवा ॐ ह्री घृणिः सूर्याय नमः ।

सूर्य देव का गायत्री मंत्र

ॐ भास्कराय विद्येहे महातेजाय धीमहि तन्नो सूर्यः प्रचोदयात् ।

सूर्य देव की पूजन करावे

ॐ अस्य आदित्यह्रदय स्तोत्रस्यागस्त्यऋषिरनुष्टुप्छन्दः आदित्यह्रदयभूतो भगवान्
ब्रह्मा देवता निरस्ताशेषविघ्नतया ब्रह्माविद्यासिद्धौ सर्वत्र जयसिद्धौ च विनियोगः ।

असे म्हणून श्रीआदित्यह्रदय स्तोत्र पठण करावे

ततो युद्धपरिश्रान्तं समरे चिन्तया स्थितम् ।
रावणं चाग्रतो दृष्टवा युद्धाय समुपस्थितम् ॥१॥

दैवतैश्च समागम्य द्रष्टुमभ्यागतो रणम् ।
उपगम्याब्रवीद्राममगस्तो भगवांस्तदा ॥२॥

राम राम महाबाहो श्रुणु गुह्यं सनातनम् ।
येन सर्वानरीन् वत्स समरे विजयिष्यसे ॥३॥

आदित्यह्रदयं पुण्यं सर्वशत्रु विनाशनम् ।
जयावहं जपं नित्यमक्षयं परमं शिवम् ॥४॥

सर्वमङ्गलमाङ्गल्यं सर्वपापप्रणाशनम् ।
चिन्ताशोकप्रशमनमा युर्वर्धन मुत्तमम् ॥५॥

रश्मिमन्तं समुद्यन्तं देवासुरनमस्कृतम् ।
पूजयस्व विवस्वन्त भास्करं भुवनेश्वरम् ॥६॥

सर्वदेवात्मको ह्रेष तेजस्वी रश्मिभावनः ।
एष देवासुरगणॉंल्लोकान् पाति गभस्तिभिः ॥७॥

एष ब्रहमाच विष्णुश्च शिवः स्कन्दः प्रजापतिः ।
महेन्द्रो धनदः कालो यमः सोमो ह्यपाम्पतिः ॥८॥

पितरो वसवः साध्या अश्विनौ मरुतो मनुः ।
वायुर्वह्निः प्रजाः प्राण ऋतुकर्ता प्रभाकरः ॥९॥

आदित्यः सविता सूर्यः खगः पूषा गभस्तिमान् ।
सुवर्णसदृशो भानुर्हिरण्यरेता दिवाकरः ॥१०॥

हरिदश्व सहस्त्रार्चिः सप्तसप्तिर्मरीचिमान् ।
निमिरोन्मथनः शम्भुस्त्वष्टा मार्तण्डकोंऽशुमान ॥११॥

हिरण्यगर्भः शिशिरस्तपनोऽहस्करो रविः ।
अग्निगर्भोऽदितेः पुत्रः शङगः शिशिरनाशनः ॥१२॥

व्योमनाथस्तमोभेदी ऋग्यजुःसाम पारगः ।
घनवृष्टिरपां मित्रो विन्ध्यवीथीप्लवङ्गमः ॥१३॥

आतपी मण्डली मृत्युः पिङगलः सर्वतापनः ।
कविर्विश्वो महातेजा रक्तः सर्वभवोभ्दवः ॥१४॥

नक्षत्रग्रहताराणामधिपो विश्वभावनः ।
तेजसामपि तेजस्वी द्वादशात्मन् नमोऽस्तु ते ॥१५॥

नमः पूर्वाय गिरचे पश्चिमायाद्रये नमः ।
ज्योतिर्गणानां पतये दिनाधिपतये नमः ॥१६॥

जयाय जयभद्राय हर्यश्वाय नमो नमः ।
नमो नमः सहस्त्रांशो आदित्याय नमो नमः ॥१७॥

नम उग्राय वीराय सारङगाय नमो नमः ।
नमः पद्मप्रबोधाय प्रचण्डाय नमोऽस्तु ते ॥१८॥

ब्रह्मेशानाच्युतेशाय सूरायादित्यवर्चसे ।
भास्वते सर्वभक्षाय रौद्राय वपुषे नमः ॥१९॥

तमोघ्याय हिमघ्यान शत्रुघ्नायमितात्मने ।
कृतघ्नाय देवाय ज्योतिषां पतये नमः ॥२०॥

तप्त चामीकराभाय हरये विश्वकर्मणे ।
नमस्तमोऽभिनिघ्नाय रुचये लोकसाक्षिणे ॥२१॥

नाशयत्येष वै भूतं तमेव सृजति प्रभुः ।
पायत्येष तपत्येष वर्षत्येष गभस्तिभिः ॥२२॥

एष सुप्तेषु जागर्ति भूतेषु परिनिष्ठितः ।
एष चैवाग्निहोत्रं च फलं चैवाग्नि होत्रिणाम् ॥२३॥

देवाश्य क्रतवश्चैव क्रतूनां फलमेव च ।
यानि कृत्यानि लोकेषु सर्वेषु परमप्रभुः ॥२४॥

एनमापत्सु कृच्छ्रेषु कान्तारेषु भयेषु च ।
कीर्तयन पुरुषः कश्चिन्नावसीदति राघव ॥२५॥

पूजयस्वैनमेकाग्रो देवदेवं जगत्पतिम् ।
एतत्त्रिगुणितं जप्त्वा युध्देषु विजयिष्यसि ॥२६॥

अस्मिन् क्षणे महाबाहो रावणं त्वं जहिष्यसि ।
एवमुक्त्वा ततोऽगस्त्यो जगाम स यथागतम् ॥२७॥

एतुच्छ्रत्वा महातेजा नष्टशोकोऽभवत् तदा ।
धारयामास सुप्रीतो राघवः प्रयतात्मवान् ॥२८॥

आदित्यं प्रेक्ष्य जप्त्वेदं परं हर्षमवाप्तवान् ।
त्रिराचम्य शुचिर्भूत्वा धनुरादाय वीर्यवान् ॥२९॥

रावणं प्रेक्ष्यं हृष्टात्मा जयार्थ समुपागमत् ।
सर्वयत्नेन महता वृतस्तस्य वधेऽभवत् ॥३०॥

अथ रविरवदन्निरीक्ष्य रामं मुदितमनाः परमं प्रहृष्यमाणः ।
निशिचरपति संक्षयं विदित्वा सुरगणमध्यगतो वचस्त्वरेति ॥३१॥

॥श्रीवाल्मीकीयेरामायणे युद्धकाण्डे अगस्त्यप्रोक्तमादित्यहृदयस्तोत्रं संपूर्णम् ॥