देश की एकमात्र नदी जो उल्टी दिशा में बहती है, गंगा से भी माना जाता है पवित्र

नर्मदा नदी को लेकर प्राचीन काल से तरह-तरह की मान्यताएं हैं। कुछ तथ्य तो ऐसे हैं जो शायद आपने पहले नहीं सुने होंगे। यह एकमात्र ऐसी नदी है जिसका पुराण है। यह एकमात्र ऐसी नदी है , जिसकी परिक्रमा की जाती है। बड़े – बड़े ऋषि-मुनि नर्मदा के तटों पर कठोर तप करते आ रहे हैं। आज हम आपको बताएंगे नर्मदा नदी से जुड़ी कुछ ऐसी ही मान्यताएं।

जबलपुर से लगभग 285 किलोमीटर दूर मैकल पर्वत के अमरकंटक शिखर से नर्मदा नदी की उत्पत्ति हुई थी।

मध्यप्रदेश की लाइफ लाइन कही जाने वाली इस नदी को ‘रेवा’ भी कहा जाता है। नर्मदा नदी का स्वयं एक पुराण है, जिसमें प्रचलित मान्यताओं का वर्णन है। पुराणों में बताया गया है कि नर्मदा का जन्म एक 12 वर्ष की कन्या के रूप में हुआ था। समुद्र मंथन के बाद भगवान शिव के पसीने की एक बूंद धरती पर गिरी, जिससे मां नर्मदा प्रकट हो गईं। इसी वजह से इन्हें ‘शिवसुता’ भी कहा जाता है।

नर्मदा नदी से जुड़ा सबसे रोचक तथ्य यह है कि यह विपरीत दिशा में बहती है । गंगा सहित अन्य नदियां जहां पश्चिम से पूर्व की ओर बहते हुए बंगाल की खाड़ी में गिरती हैं , वहीं नर्मदा नदी बंगाल की खाड़ी की जगह अरब सागर में जाकर मिलती है। मान्यता है कि एक बार क्रोध में आकर इन्होंने अपनी दिशा बदल ली थी और चिरकाल तक अकेले ही बहने का निर्णय लिया। इनके इस अखंड निर्णय की वजह से ही इन्हें चिरकुंआरी कहा जाता है। पुरणों में उल्लेख है कि भगवान शिव ने अनंतकाल तक मां नर्मदा को संसार में रहने का वरदान दिया था । ऐसा उल्लेख मिलता है कि भगवान शिव ने वरदान देते हुए कहा था कि प्रलयकाल में भी तुम्हारा अंत नहीं होगा। अपने निर्मल जल से तुम युगों – युगों तक इस समस्त संसार का कल्याण करोगी।

जबलुपर से 285 किलोमीटर दूर अमरकंटक मां नर्मदा का उद्गम स्थल है। यहां ये नर्मदा एक एक छोटी – सी धार से प्रारंभ हुई हैं और आगे बढ़कर विशाल रूप धारण लिया। ऐसी पुरातन मान्यता है कि गंगा स्वयं प्रत्येक साल नर्मदा से भेंट एवं स्नान करने आती हैं। मां नर्मदा को मां गंगा से भी अधिक पवित्र माना गया है कहा जाता है कि इसी वजह से गंगा हर साल स्वयं को पवित्र करने नर्मदा के पास पहुंचती हैं। यह दिन गंगा दशहरा का माना जाता है। जिस प्रकार गंगा में स्नान का पुण्य है उसी प्रकार नर्मदा के दर्शन मात्र से मनुष्य के कष्टों का अंत हो जाता है।

अन्य नदियों से विपरीत नर्मदा से निकले हुए पत्थरों को शिव का रूप माना जाता है। ये स्वयं प्राणप्रतिष्ठित होते हैं अर्थात् नर्मदा के पत्थरों को प्राण प्रतिष्ठित करने की आवश्यकता नहीं होती। इसी कारण देश में ही नहीं विदेशों में भी नर्मदा से निकले हुए पत्थरों की शिवलिंग के रूप में सर्वाधिक मान्यता है।

नर्मदा मैया का अवतरण

इस सृष्टि से पूर्व की सृष्टि में समुद्र के अधिदेवता पर भगवान् ब्रह्मा जी किसी कारण से रूष्ट हो गये और उन्होंने समुद्र को मानव जन्म-धारण का शाप दिया, जिसके परिणाम स्वरूप पाद्यकल्प में समुद्र के अधिदेवता राजा पुरूकुत्स के रूप में पृथ्वी पर उत्पन्न हुए। एक बार पुरूकुत्स ने ऋषियों तथा देवताओं से पूछा ‘भूलोक तथा दिव्य लोक में सर्वश्रेष्ठ तीर्थ कौन-सा है?’

देवताओं ने बताया ‘रेवा ही सर्वश्रैष्ठ तीर्थ हैं। वे परम पावनी तथा शिव को प्रिय हैं। उनकी अन्य किसी से तुलना नहीं है।’ राजा पुरूकुत्स बोले ‘तब उन तीर्थोत्तम रेवा को भूतल पर अवतीर्ण करने का प्रयत्न करना चाहिये’। ऋषियों तथा देवताओं ने अपनी असमर्थता प्रकट की। उन्होंने कहा ‘वे नित्य शिव-सानिध्य में ही रहती हैं। शंकर जी भी उन्हें अपनी पुत्री मानते हैं, वे उन्हें त्याग नहीं सकते।’

लेकिन राजा पुरूकुत्स निराश होने वालों में से नहीं थे। उनका संकल्प अटल था। विन्ध्य के शिखर पर जाकर उन्होंने तपस्या प्रारम्भ की। पुरूकुत्स की कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव प्रकट हुए और उन्होंने राजा से वरदान मांगने को कहा। पुरूकुत्स बोले ‘परम तीर्थभूता नर्मदा का भूतल पर आप अवतरण करायें। उन रेवा के पृथ्वी पर अवतरण के सिवाय मुझे आपसे और कुछ नहीं चाहिये।’

भगवान शिव ने पहले तो राजा को यह कार्य असम्भव बतलाया, किंतु शंकर जी ने देखा कि ये दूसरा वर नहीं चाहते तो उनकी निस्पृहता एवं लोक मंगल की कामना से भगवान भोलेनाथ बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने नर्मदा मैया को पृथ्वी पर उतरने का आदेश दिया।

नर्मदा जी बोलीं ‘पृथ्वी पर मुझे कोई धारण करने वाला हो और आप भी मेरे समीप रहेंगे, तो मैं भूतल पर उतर सकती हूं।’ शिव जी ने स्वीकार किया कि ‘वे सर्वत्र नर्मदा की सन्निधि में रहेंगे तथा नर्मदा का पावन तट शिव क्षेत्र कहलायेगा’ ।

जब भगवान शिव ने पर्वतों को आज्ञा दी तो उन्होंने नर्मदा मैया के प्रचंड वेग को धारण करना स्वीकार किया। पर्यंक पर्वत ने नर्मदा के मेकल नाम को धारण किया | उस पर्वत की चोटी से, बांस के पेड़ के अंदर से मां नर्मदा प्रकट हुई। इसी कारण इनका एक नाम ‘मेकलसुता’ हो गया। देवताओं ने आकर प्रार्थना की कि यदि आप हमारा स्पर्श करेंगी तो हम लोग भी पवित्र हो जायंगे।

नर्मदा ने उत्तर दिया “मैं अभी तक कुमारी हूं, अतः किसी पुरूष का स्पर्श नहीं करूंगी, पर यदि कोई हठपूर्वक मेरा स्पर्श करेगा तो वह भस्म हो जायगा। अतः आप लोग पहले मेरे लिये उपयुक्त पुरूष का विधान करें”। देवताओं ने बताया कि ‘राजा पुरूकुत्स आपके सर्वथा योग्य हैं, वे समुद्र देव के अवतार हैं, तथा नदियों के नित्यपति समुद्र ही हैं।

वे तो साक्षात नारायण के अंग से उत्पन्न उन्हीं के अंश हैं, अतः आप उन्हीं का वरण करें’। नर्मदा ने राजा पुरूकुत्स को पतिरूप में वरण कर लिया, फिर राजा की आज्ञा से नर्मदा ने अपने जल से देवताओं को पवित्र किया।