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सप्तऋषि की कहानी (सप्तर्षि मंडल)
सप्तर्षि (सप्त + ऋषि) सात ऋषियों को कहते हैं जिनका उल्लेख वेद एवं अन्य हिन्दू ग्रन्थों में अनेकों बार हुआ है। वेदों का अध्ययन करने पर जिन सात ऋषियों या ऋषि कुल के नामों का पता चलता है वे नाम क्रमश: इस प्रकार है:-
- 1.वशिष्ठ, 2.विश्वामित्र, 3.कण्व, 4.भारद्वाज, 5.अत्रि, 6.वामदेव और 7.शौनक।
पुराणों में सप्त ऋषि के नाम पर भिन्न-भिन्न नामावली मिलती है। विष्णु पुराण अनुसार इस मन्वन्तर के सप्तऋषि इस प्रकार है :-
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वशिष्ठकाश्यपो यात्रिर्जमदग्निस्सगौत।
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विश्वामित्रभारद्वजौ सप्त सप्तर्षयोभवन्।।
- – अर्थात् सातवें मन्वन्तर में सप्तऋषि इस प्रकार हैं:- वशिष्ठ, कश्यप, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र और भारद्वाज।
- इसके अलावा पुराणों की अन्य नामावली इस प्रकार है:- ये क्रमशः क्रतु, पुलह, पुलस्त्य, अत्रि, अंगिरा, वशिष्ट तथा मरीचि है।
1- ऋषि वशिष्ठ
राजा दशरथ के चारों पुत्रों के गुरु थे। उन्होंने चारों राजकुमारों को राजा दशरथ से राक्षसों का वध करने के लिए मांगा था। यह वैदिक काल के प्रमुख ऋषि थे। उन्हें ईश्वर द्वारा सत्य का ज्ञान हुआ था। एक बार ऋषि विश्वामित्र वशिष्ठ के आश्रम में आए। उनका सत्कार उन्होंने कामधेनु गाय के द्वारा दिए गए भोजन, फल और दूध से किया। कामधेनु गाय को देखकर ऋषि विश्वामित्र लोभी बन गए। वे मन ही मन कामधेनु गाय को प्राप्त करना चाहते थे। उन्होंने वशिष्ठ से कामधेनु गाय मांगी पर उन्होंने मना कर दिया। ऋषि वशिष्ठ को अपने लिए आवश्यक वस्तुओं की पूर्ति के लिए कामधेनु गाय की बहुत आवश्यकता थी इसलिए उन्होंने गाय देने में असमर्थता जताई। फिर वशिष्ठ और विश्वामित्र के बीच कामधेनु गाय के लिए युद्ध हुआ था। वशिष्ठ ने राजसत्ता पर अंकुश का विचार दिया तो उन्हीं के कुल के मैत्रावरूण वशिष्ठ ने सरस्वती नदी के किनारे सौ सूक्त एक साथ रचकर नया इतिहास बनाया।
2- ऋषि विश्वामित्र
ऋषि होने के पूर्व विश्वामित्र राजा थे और ऋषि वशिष्ठ से कामधेनु गाय को हड़पने के लिए उन्होंने युद्ध किया था, लेकिन वे हार गए। इस हार ने ही उन्हें घोर तपस्या के लिए प्रेरित किया। विश्वामित्र की तपस्या और मेनका द्वारा उनकी तपस्या भंग करने की कथा जगत प्रसिद्ध है। विश्वामित्र ने अपनी तपस्या के बल पर त्रिशंकु को सशरीर स्वर्ग भेज दिया था। इस तरह ऋषि विश्वामित्र के असंख्य किस्से हैं। माना जाता है कि हरिद्वार में आज जहां शांतिकुंज हैं उसी स्थान पर विश्वामित्र ने घोर तपस्या करके इंद्र से रुष्ठ होकर एक अलग ही स्वर्ग लोक की रचना कर दी थी। विश्वामित्र ने इस देश को ऋचा बनाने की विद्या दी और गायत्री मन्त्र की रचना की जो भारत के हृदय में और जिह्ना पर हजारों सालों से आज तक अनवरत निवास कर रहा है। इन्होंने ही गायत्री मंत्र की रचना की है जो आज भी चमत्कारिक मंत्र माना जाता है। ब्रह्मा जी ने ऋषि विश्वामित्र की तपस्या से प्रसन्न होकर उन्हें ब्राह्मण की उपाधि प्रदान की थी।
3- ऋषि कण्व
वैदिक काल के प्रसिद्ध ऋषि थे। इन्होंने हस्तिनापुर के राजा दुष्यंत की पत्नी शकुंतला और उनके पुत्र भरत का पालन पोषण किया था। सोनभद्र में जिला मुख्यालय से आठ किलो मीटर की दूरी पर कैमूर शृंखला के शीर्ष स्थल पर स्थित कण्व ऋषि की तपस्थली है जो कंडाकोट नाम से जानी जाती है।
4- ऋषि भारद्वाज
चरक संहिता के अनुसार ऋषि भारद्वाज ने आयुर्वेद का ज्ञान इंद्र से पाया था। वे ब्रह्मा, बृहस्पति एवं इन्द्र के बाद वे चौथे व्याकरण-प्रवक्ता थे। महर्षि भरद्वाज व्याकरण, आयुर्वेद संहित, धनुर्वेद, राजनीतिशास्त्र, यंत्रसर्वस्व, अर्थशास्त्र, पुराण, शिक्षा आदि पर अनेक ग्रंथों के रचयिता हैं। वो बृहस्पति के पुत्र थे। इनकी माता का नाम ममता था। इनका जन्म श्री राम के जन्म के पूर्व हुआ था। इन्होंने वेदों के कई मंत्रियों की रचना की है। भारद्वाज स्मृति भारद्वाज संगीता की रचना इन्होंने की है। ऋषि भारद्वाज के पुत्रों में 10 ऋषि ऋग्वेद के मन्त्रदृष्टा हैं और एक पुत्री जिसका नाम ‘रात्रि’ था, वह भी रात्रि सूक्त की मन्त्रदृष्टा मानी गई हैं। ॠग्वेद के छठे मण्डल के द्रष्टा भारद्वाज ऋषि हैं। इस मण्डल में भारद्वाज के 765 मन्त्र हैं। अथर्ववेद में भी भारद्वाज के 23 मन्त्र मिलते हैं। ‘भारद्वाज-स्मृति’ एवं ‘भारद्वाज-संहिता’ के रचनाकार भी ऋषि भारद्वाज ही थे। ऋषि भारद्वाज ने ‘यन्त्र-सर्वस्व’ नामक बृहद् ग्रन्थ की रचना की थी। इस ग्रन्थ का कुछ भाग स्वामी ब्रह्ममुनि ने ‘विमान-शास्त्र’ के नाम से प्रकाशित कराया है। इस ग्रन्थ में उच्च और निम्न स्तर पर विचरने वाले विमानों के लिए विविध धातुओं के निर्माण का वर्णन मिलता है।
5- ऋषि अत्रि
ऋग्वेद के पंचम मण्डल के द्रष्टा महर्षि अत्रि ब्रह्मा के पुत्र, सोम के पिता और कर्दम प्रजापति व देवहूति की पुत्री अनुसूया के पति थे। अत्रि जब बाहर गए थे तब त्रिदेव अनसूया के घर ब्राह्मण के भेष में भिक्षा मांगने लगे और अनुसूया से कहा कि जब आप अपने संपूर्ण वस्त्र उतार देंगी तभी हम भिक्षा स्वीकार करेंगे, तब अनुसूया ने अपने सतित्व के बल पर उक्त तीनों देवों को अबोध बालक बनाकर उन्हें भिक्षा दी। माता अनुसूया ने देवी सीता को पतिव्रत का उपदेश दिया था। अत्रि ऋषि ने इस देश में कृषि के विकास में पृथु और ऋषभ की तरह योगदान दिया था। अत्रि लोग ही सिन्धु पार करके पारस (आज का ईरान) चले गए थे, जहां उन्होंने यज्ञ का प्रचार किया। अत्रियों के कारण ही अग्निपूजकों के धर्म पारसी धर्म का सूत्रपात हुआ। अत्रि ऋषि का आश्रम चित्रकूट में था। मान्यता है कि अत्रि-दम्पति की तपस्या और त्रिदेवों की प्रसन्नता के फलस्वरूप विष्णु के अंश से महायोगी दत्तात्रेय, ब्रह्मा के अंश से चन्द्रमा तथा शंकर के अंश से महामुनि दुर्वासा महर्षि अत्रि एवं देवी अनुसूया के पुत्र रूप में जन्मे। ऋषि अत्रि पर अश्विनीकुमारों की भी कृपा थी। उन्होंने इंद्र अग्नि और अन्य देवताओं को भजन लिखने की प्रेरणा दी थी। इनका ऋग्वेद में सबसे अधिक उल्लेख मिलता है।
6- ऋषि वामदेव
इन्होने संगीत की रचना की थी। यह गौतम ऋषि के पुत्र थे। इन्होने इंद्र से तत्वज्ञान पर चर्चा की थी। जब ये अपनी माता के गर्भ में थे तब इन्हें विगत 2 जन्मों का ज्ञान हो गया था। ऐसा उल्लेख किया जाता है कि ऋषि वामदेव सामान्य रूप से माता के गर्भ से पैदा नहीं होना चाहते थे। इसलिए इनका जन्म इनकी माता के पेट को फाड़कर हुआ था।
7- ऋषि शौनक
शौनक ने दस हजार विद्यार्थियों के गुरुकुल को चलाकर कुलपति का विलक्षण सम्मान हासिल किया और किसी भी ऋषि ने ऐसा सम्मान पहली बार हासिल किया। वैदिक आचार्य और ऋषि जो शुनक ऋषि के पुत्र थे। वो संस्कृत व्याकरण, ऋग्वेद प्रतिशाख्य, बृहद्देवता, चरणव्यूह तथा ऋग्वेद की 6 अनुक्रमणिकाओं के रचयिता ऋषि थे। वो कात्यायन और अश्वलायन के गुरु माने जाते है। उन्होने ऋग्वेद की बश्कला और शाकला शाखाओं का एकीकरण किया। विष्णुपुराण के अनुसार शौनक ग्रतसमद के पुत्र थे।