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ऋषि कश्यप, हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष
ऋषि कश्यप, हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष : जैसा कि हम पहले बता चुके हैं कि संपूर्ण धरती पर पहले जल ही था। जल जब हटा तो धरती का सर्वप्रथम हिस्सा जो प्रकट हुआ, वह मेरू पर्वत के आसपास का क्षेत्र था। यह पर्वत हिमालय के बीचोबीच का हिस्सा है। यहीं पर कैलाश पर्वत है। कश्मीर को कश्यप ऋषि के कुल के लोगों ने ही बसाया था।
पुराण के अनुसार सृष्टि की रचना और विकास के काल में धरती पर सर्वप्रथम भगवान ब्रह्माजी प्रकट हुए। ब्रह्माजी से दक्ष प्रजापति का जन्म हुआ। ब्रह्माजी के निवेदन पर दक्ष प्रजापति ने अपनी पत्नी असिक्नी के गर्भ से 66 कन्याएं पैदा कीं। इन कन्याओं में से 13 कन्याएं ऋषि कश्यप की पत्नियां बनीं। मुख्यत: इन्हीं कन्याओं से सृष्टि का विकास हुआ और कश्यप सृष्टिकर्ता कहलाए। उल्लेखनीय है कि ब्रह्मा के पुत्रों के कुल के लोगों ने ही आपस में रोटी-बेटी का संबंध रखकर कुल का विस्तार किया।
कश्यप की पत्नियां : इस प्रकार ऋषि कश्यप की अदिति, दिति, दनु, काष्ठा, अरिष्टा, सुरसा, इला, मुनि, क्रोधवशा, ताम्रा, सुरभि, सुरसा, तिमि, विनता, कद्रू, पतांगी और यामिनी आदि पत्नियां बनीं। इन पत्नियों की कहानी भी बड़ी रोचक है। हिन्दुओं को इनकी कहानियां पढ़ना चाहिए।
1. अदिति : पुराणों के अनुसार कश्यप ने अपनी पत्नी अदिति के गर्भ से 12 आदित्यों को जन्म दिया जिनमें भगवान नारायण का वामन अवतार भी शामिल था। ये 12 पुत्र इस प्रकार थे- विवस्वान (सूर्य), अर्यमा, पूषा, त्वष्टा (विश्वकर्मा), सविता, भग, धाता, विधाता, वरुण, मित्र, इंद्र और त्रिविक्रम (भगवान वामन)। माना जाता है कि ऋषि कश्यप के पुत्र विवस्वान से वैवस्वत मनु का जन्म हुआ।
नोट : *महाराज वैवस्वत मनु को इक्ष्वाकु, नृग, धृष्ट, शर्याति, नरिष्यंत, प्रांशु, नाभाग, दिष्ट, करुष और पृषध्र नामक 10 श्रेष्ठ पुत्रों की प्राप्ति हुई। इनके ही कुल में आगे चलकर राम हुए। यह सूर्यवंशियों का कुल था, जबकि चंद्रवंशियों की उत्पत्ति ब्रह्मा के पुत्र अत्रि से हुई थी। *ब्रह्मा से अत्रि, अत्रि से चंद्रमा, चंद्रमा से बुध, बुध से पुरुरवा, पुरुरवा से आयु, आयु से नहुष, नहुष से यति, ययाति, संयाति, आयति, वियाति और कृति नामक 6 महाबल-विक्रमशाली पुत्र हुए। *इधर, सूर्यवंश- ब्रह्मा से मरीचि, मरीचि से कश्यप और कश्यप से विवस्वान (सूर्य), विवास्वान से वैवस्वत मनु का जन्म हुआ।
2. दिति : कश्यप ऋषि ने दिति के गर्भ से हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष नामक दो पुत्र एवं सिंहिका नामक एक पुत्री को जन्म दिया। श्रीमद्भागवत के अनुसार इन तीन संतानों के अलावा दिति के गर्भ से कश्यप के 49 अन्य पुत्रों का जन्म भी हुआ, जो कि मरुंदण कहलाए। कश्यप के ये पुत्र नि:संतान रहे। जबकि हिरण्यकश्यप के 4 पुत्र थे- अनुहल्लाद, हल्लाद, भक्त प्रह्लाद और संहल्लाद।
देवासुर संग्राम : उक्त दोनों के पुत्रों को सुर और असुर कहा जाता है। दोनों के ही पुत्रों में धरती पर स्वर्ग के अधिकार को लेकर घनघोर युद्ध होता था। माना जाता है कि देवासुर संग्राम लगभग 12 बार हुआ। इन दोनों के पुत्रों में अदिति के पुत्र इंद्र और विवस्वान की प्रतिद्वंद्विता दिति के पुत्र हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष से चलती रहती थी। अदिति के पुत्र वरुण देव और असुर दोनों को ही प्रिय थे इसलिए उनको असुरों का समर्थक भी माना गया है। वरुण देव जल के देवता हैं।
हिरण्याक्ष : हिरण्याक्ष भयंकर दैत्य था। वह तीनों लोकों पर अपना अधिकार चाहता था। हिरण्याक्ष का दक्षिण भारत पर राज था। ब्रह्मा से युद्ध में अजेय और अमरता का वर मिलने के कारण उसका धरती पर आतंक हो चला था। हिरण्याक्ष भगवान वराहरूपी विष्णु के पीछे लग गया था और वह उनके धरती निर्माण के कार्य की खिल्ली उड़ाकर उनको युद्ध के लिए ललकारता था। वराह भगवान ने जब रसातल से बाहर निकलकर धरती को समुद्र के ऊपर स्थापित कर दिया, तब उनका ध्यान हिरण्याक्ष पर गया।
आदि वराह के साथ भी महाप्रबल वराह सेना थी। उन्होंने अपनी सेना को लेकर हिरण्याक्ष के क्षेत्र पर चढ़ाई कर दी और विंध्यगिरि के पाद प्रसूत जल समुद्र को पार कर उन्होंने हिरण्याक्ष के नगर को घेर लिया। संगमनेर में महासंग्राम हुआ और अंतत: हिरण्याक्ष का अंत हुआ। आज भी दक्षिण भारत में हिंगोली, हिंगनघाट, हींगना नदी तथा हिरण्याक्षगण हैंगड़े नामों से कई स्थान हैं। उल्लेखनीय है कि सबसे पहले भगवान विष्णु ने नील वराह का अवतार लिया फिर आदि वराह बनकर हिरण्याक्ष का वध किया इसके बाद श्वेत वराह का अवतार नृसिंह अवतार के बाद लिया।
हिरण्यकश्यप : हिरण्यकश्यप का पुत्र प्रह्लाद भगवान विष्णु का भक्त था। हिरण्यकश्यप को यह अच्छा नहीं लगता था। हिरण्याक्ष की तरह वह चाहता था कि संपूर्ण धरती के देव, दानव और मानव मुझे ईश्वर मानें। हिरण्यकश्यप को मारने के लिए भगवान विष्णु को नृसिंह का अवतार लेना पड़ा। भक्त प्रह्लाद की कहानी से सभी अवगत हैं। होलिका दहन और नृसिंह जयंती पर्व इस घटना की याद में मनाया जाता है।