लाल बहादुर शास्त्री : भारत के पहले ‘एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’

21 दिसंबर, 2018 को पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के तत्कालीन प्रमुख मीडिया सलाहकार संजय बारू के संस्मरणों की किताब ‘द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ पर आधारित इसी नाम की फ़िल्म रिलीज़ हुई थी। यह फ़िल्म मनमोहन सिंह के कार्यकाल (2004-2014) के इर्द-गिर्द घूमती है।

अपने कार्यकाल के समाप्त होने पर मनमोहन सिंह ने कहा था कि इतिहास उनके साथ उदारता से पेश आएगा। यह कहते हुए शायद वे लाल बहादुर शास्त्री के जीवन और प्रधानमंत्री के रूप में उनके कार्यकाल को देख रहे थे, जिन्होंने विकट परिस्थिति में भारत की कमान संभाली थी और एक तरह से यहाँ के पहले ‘एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ बने थे।

जब भी लाल बहादुर शास्त्री का नाम सामने आता है, कई लोग इनका प्रसिद्ध नारा ‘जय जवान, जय किसान’ को याद करते हैं और उस समय को भूल जाते हैं जब जवाहर लाल नेहरू के निधन के बाद देश के सबसे बड़े पद पर पहुँचने के लिए इन्हें कितने संघर्ष का सामना करना पड़ा था। उस समय कांग्रेस के अध्यक्ष के. कामराज ने लाल बहादुर शास्त्री को प्रधानमंत्री बनवाने में मुख्य भूमिका निभाई थी।

भारतीय लोकतंत्र की स्थापना के 17 वर्ष बाद नेहरू के निधन से भारत में एक राजनीतिक अनिश्चितता की स्थिति पैदा हो गई थी। दुनिया भर की निगाहें भारत पर टिकी थीं कि वह नेतृत्व के स्तर पर आए इस राजनीतिक खालीपन को कैसे भरता है।

जवाहर लाल नेहरू के निधन के एक सप्ताह बाद 3 जून, 1964 को न्यूयॉर्क टाइम्स ने लिखा था, “ज्वलंत प्रश्न यह है कि क्या भारत का लोकतंत्र, सांप्रदायिक सौहार्द और अहिंसा के प्रति समर्पण केवल जवाहर लाल नेहरू के कारण था। न केवल भारत की आंतरिक शांति पर, बल्कि एशिया और शायद दुनिया की शांति भी इसके जवाब पर टिकी हुई है।“

उसी साल की शुरुआत में, न्यूयॉर्क टाइम्स ने लाल बहादुर शास्त्री के जीवन की संक्षिप्त रूप-रेखा तैयार की थी, जिन्हें वह अख़बार ‘प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू का उत्तराधिकारी’ मानता था। “सादगीपूर्ण, शर्मीला, किसी भी तरह के व्यसन से दूर, शाकाहारी और शांतिदूत’ जैसे विशेषण लाल बहादुर शास्त्री के लिए सही थे और उनका व्यक्तित्व पूरी तरह सकारात्मक बताया गया था।

उस घटना का भी ज़िक्र किया था, जिसमें उनकी व्यक्तिगत ज़िम्मेदारी की भावना देश के समक्ष तब उभर कर सामने आई, जब एक भीषण रेल दुर्घटना के बाद उन्होंने रेल एवं परिवहन मंत्री होने के कारण निजी तौर पर इसकी ज़िम्मेदारी लेते हुए अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया था।

द न्यूयॉर्क टाइम्स में प्रकाशित उनकी प्रोफ़ाइल में भविष्य में कांग्रेस के सभी वैचारिक गुटों में शास्त्री की स्वीकार्यता का भी अनुमान लगाया गया था। लाल बहादुर शास्त्री ने अपने जीवन का करीब एक दशक जेल में बिताया था और राष्ट्रीय विश्वविद्यालय में जाने के लिए औपचारिक शिक्षा छोड़ दी थी। अंग्रेजों के ख़िलाफ गांधीजी द्वारा छेड़ी गयी लड़ाई में उनका साथ देने के लिए वे कूद पड़े थे। स्वतन्त्रता मिलने के बाद वे नेहरू के सबसे ईमानदार सहयोगी माने जाते थे और सभी उनका सम्मान करते थे।

एक अमेरिकी प्रकाशन ने लिखा था, “शास्त्री को दुश्मन नहीं बनाने वाले भारतीय राजनेताओं में सबसे निपुण माना जाता है। सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी में उनकी ख्याति प्रतिद्वंद्वी राजनीतिज्ञों के बीच एक मध्यस्थ और सुलह कराने वाले नेता के रूप में है। शास्त्री को ऐसे व्यक्ति के रूप में जाना जाता था, जो भारतीय राजनीति के सारे विरोधाभासों के बीच निष्पक्ष हो कर आसानी से चलते हैं।“.

हालांकि, नेहरू ने अपनी मृत्यु के पहले उत्तराधिकारी का चुनाव नहीं किया था और प्रधानमंत्री का पद पाने के लिए संघर्ष ज़ोरों पर था, लेकिन इसी बीच कामराज ने अपना प्रसिद्ध ‘कामराज प्लान’ पेश कर दिया था और पार्टी को मजबूत बनाने के लिए प्रयासरत थे।

पार्टी के वरिष्ठ नेता होने के नाते प्रधानमंत्री के रूप में मोरारजी देसाई के नाम पर सबसे ज़्यादा अटकलें लगाई जा रही थीं, पर अपने जिद्दी और अड़ियल स्वभाव’ के चलते वे पार्टी के अधिकांश नेताओं के बीच लोकप्रिय नहीं थे। पत्रकार और लेखक माइकल ब्रेचर ने अपनी पुस्तक ‘सक्सेशन इन इंडिया’ (1966) में बताया है कि किस प्रकार कामराज और उनके सहयोगियों ने देसाई के नाम की अटकलों को दबाने का प्रयास किया और “उस इंसान को समर्थन दिया जो पार्टी को विभाजित करने की जगह उसे एकजुट बना कर रख पाए।

“हालांकि, नेहरू की मृत्यु के एक सप्ताह बाद ही कामराज और उनकी टीम को पार्टी में चल रहे शक्ति संघर्ष का सामना करना पड़ा, जब कई वरिष्ठ नेता शीर्ष पर पहुँचने के लिए क्षेत्रीय और जातीय विचारों के आधार पर गठजोड़ बनाने के काम में लग गए थे। हालांकि, यहाँ दो ऐसे नेता भी थे जो इन सब से ऊपर थे – एक कार्यवाहक प्रधानमंत्री गुलज़ारी लाल नन्दा और दूसरे मोरारजी देसाई, जिन्होंने नेहरू की मृत्यु के एक दिन बाद ही अपनी उम्मीदवारी घोषित कर दी थी और जिनकी इस पहल के पीछे कई लोगों को कोई चाल नहीं दिखी थी।

अपने पक्ष में समर्थन जुटाने की कोशिशों के बाद भी नन्दा और रक्षा मंत्री यशवंतराव चव्हाण जानते थे कि दुनिया की नज़रें भारत पर टिकी हैं कि यह नवजात लोकतंत्र नेहरू की विरासत को आगे बढ़ पाएगा और उनकी सोच को जीवित रख पाएगा या नहीं। एक उम्मीदवार के रूप में खड़े होने के बाद भी नन्दा इस बात को लेकर सचेत थे कि दुनिया की निगाहें हम पर टिकी हैं और प्रधानमंत्री पद हासिल करने के लिए खुली लड़ाई का प्रदर्शन करना सही नहीं होगा।

इस बीच, कामराज सैकड़ों कांग्रेसी सांसदों के साथ विचार-विमर्श कर रहे थे और शास्त्री के नाम पर एक ‘आम सहमति’ बनाने की कोशिश कर रहे थे। वी.के. कृष्ण मेनन ने कहा था, “जब कांग्रेस के अध्यक्ष आपको बुलाते हैं तो आप अपनी राय व्यक्त करेंगे।“ जल्द ही शास्त्री का नाम प्रधानमंत्री के रूप में पार्टी के ‘आधिकारिक’ चयन के रूप में सामने आया और नन्दा व देसाई के समर्थकों को पीछे हटना पड़ा।

भारत के दूसरे प्रधानमंत्री ने खुद इस शीर्ष पद के लिए कोई दावेदारी नहीं की थी। लेकिन उन्होंने कठिन समय में इस देश की बागडोर संभाली। इतिहासकार मनु एस पिल्लई एक लेख में कहते हैं, “एक आदमी जिसने 18 महीने में एक कठपुतली के रूप में नहीं, बल्कि एक आदर व प्रशंसा के योग्य नेता के रूप में अपनी पहचान बनाई।”

प्रधानमंत्री बनने के बाद 11 जून, 1964 को अपने पहले रेडियो प्रसारण में, शास्त्री ने कहा,

“हर राष्ट्र के जीवन में एक ऐसा समय आता है, जब वह इतिहास के चौराहे पर खड़ा होता है और उसे चुनना पड़ता है कि किस राह पर जाना है। पर हमारे लिए यहाँ कोई मुश्किल या झिझक नहीं थी, कोई दाएं-बाएं देखना नहीं था। हमारा रास्ता सीधा और साफ था – स्वतंत्रता व समृद्धि के साथ एक धर्मनिरपेक्ष और मिश्रित अर्थव्यवस्था का निर्माण करना और चुनिन्दा देशों के साथ विश्व शांति व मित्रता को बनाए रखना।”

एक प्रधानमंत्री के रूप में उनका 18 महीने का कार्यकाल संक्षिप्त, लेकिन असरदार रहा। एक सही और सच्चा नेतृत्व देते हुए उन्होंने भारत को संकट की घड़ी से निकलने में मदद की। दक्षिणी राज्यों में फैले हिंदी विरोधी आंदोलन को शांत करने से ले कर, हरित क्रांति व श्वेत क्रांति को बढ़ावा देकर भारत की सबसे बड़ी खाद्य कमी के समाधान की ओर पहला कदम बढ़ाने तक, शास्त्री ने भारत को केन्द्रीय योजनाओं के आधार पर नेहरू की सामाजिक- आर्थिक नीतियों को आगे बढ़ाने के लिए एक नई दिशा दी।

हालांकि, सबसे महत्वपूर्ण पाकिस्तान के विरुद्ध भारत के 1965 के युद्ध में देश का नेतृत्व करना था, जब इन्होंने स्वतंत्र भारत के अब तक के सबसे प्रसिद्ध नारे में से एक ‘जय जवान, जय किसान’ का नारा दिया था। आधिकारिक तौर पर 1965 में अगस्त के पहले सप्ताह में आरंभ युद्ध के पहले लोकसभा के सत्र में उन्होंने कहा था,

“सीमित संसाधनों के इस्तेमाल में हमने हमेशा आर्थिक विकास की योजनाओं और परियोजनाओं को प्राथमिकता दी है। इसलिए जो भी स्पष्ट रूप से चीजों को देखने के लिए तैयार हैं, उनके लिए यह ज़ाहिर है कि भारत को सीमावर्ती घटनाओं को भड़काने या झगड़े की स्थिति उत्पन्न करने में कोई दिलचस्पी नहीं है। ऐसी परिस्थिति में, सरकार का कर्तव्य स्पष्ट है और इस कर्तव्य को प्रभावी ढंग से पूरा किया जाएगा। जब तक ज़रूरी होगा, हम गरीबी में रहने का विकल्प चुनेंगे, पर अपनी आज़ादी को खोने नहीं देंगे।“

युद्ध के बाद, लाल बहुत शास्त्री और इनके पाकिस्तानी समकक्ष जनरल अय्यूब खान ने 10 जनवरी, 1966 को ताशकंद घोषणा पत्र पर हस्ताक्षर किया, जिससे आपस की सारी शत्रुता समाप्त हो गई। हालांकि, इसी समय भारत में पाकिस्तान को कश्मीर में असंतोष भड़काने की कोशिश को रोकने के लिए मजबूर न किए जाने पर आलोचना हो रही थी।

इस समझौते पर हस्ताक्षर करने के बाद दिल का दौरा पड़ने से शास्त्री का ताशकंद में ही निधन हो गया। बहुत लोग मानते हैं कि यह मौत प्राकृतिक नहीं थी और इसके पीछे कोई साजिश रही होगी।

जाने-माने इतिहासकार रामचन्द्र गुहा ने अपनी पुस्तक, ‘पैट्रियट एंड पार्टिशन‘ में एक ऐसे प्रसंग का उल्लेख किया है, जिससे पता चलता है कि शास्त्री का निधन किसी साजिश के तहत ही हुआ।

“अगर शास्त्री 1960 के अंत तक प्रधानमंत्री बने रहते तो भारत का आर्थिक इतिहास अलग होता। 1950 में भारत ने मजबूत घरेलू उद्योग की संरचना को तैयार किया था। यह समय उद्योग जगत को मुक्त रूप से काम करने की अनुमति देने का था।

1965 में दिये गए भाषणों में शास्त्री ने स्पष्ट संकेत दिये थे कि वे बाज़ार को उद्यम और प्रतिस्पर्धा के लिए स्वतंत्र करना चाहते हैं। दुखद है कि इसके कुछ समय बाद ही उनकी मृत्यु हो गयी। निजी क्षेत्र की क्षमता पर विश्वास न कर के इंदिरा गांधी ने अर्थव्यवस्था पर राज्य के नियंत्रण को मजबूत किया।

यदि भाग्य ने शास्त्री को प्रधानमंत्री के रूप में एक लंबी पारी खेलने दी होती, तो भारत की अर्थव्यवस्था अधिक मजबूत और लचीली हो सकती थी। वे एक व्यावहारिक सुधारक भी थे। उन्होंने उत्पादन प्रक्रिया को राज्य के नियंत्रण से मुक्त कर दिया होता और गरीबी को हटाने के लिए कल्याणकारी उपाय भी आरंभ कर दिये होते। दूर दृष्टि और ईमानदारी वाले इंसान के रूप में इन्होंने भारत के सार्वजनिक संस्थानों के प्रदर्शन में सुधार के लिए भी कदम उठाए होते।”

देखा जाए तो मनमोहन सिंह और शास्त्री, दोनों ‘Accidental Prime Minister’ थे और अपनी तरह से सुधारक भी थे। हो सकता है, इतिहास मनमोहन सिंह के प्रति दयालुता दिखाए, पर शास्त्री को इसकी आवश्यकता नहीं। इतिहास हमारे सामने बस यह सवाल रखने वाला है – “क्या होता अगर शास्त्री जीवित होते?”