मृत्युभोज: समाज की कुरीति या धार्मिक क्रिया को ख़त्म करने का षड्यंत्र?

आज समाज का एक बड़ा तबका इसको कुरीति कह रहा है और इसको बंद करने के लिए कह रहा है। पहला बिंदु तो यह कि हमारी कोई भी परंपरा हजारों वर्षों में समाज हित में विकसित हुए एक तंत्र का हिस्सा है। फिर यदि समयानुसार कुछ बातें कालातीत भी हुईं तो हमने उसमें संसोधन का मार्ग चुना न कि प्रतिबंध का। उदाहरणार्थ आज के गणेशोत्सव पर जब कुछ लोगों ने प्रदूषण का रोना रोया तो हमने नारियल के गणेश बनाए, फलों के गणेश बनाए, फिटकरी के गणेश बनाए ताकि विसर्जन के बाद वह प्रदूषण की वजाय जलचरों का भोजन बनें या जल का शुद्धिकरण करें। हमने अपनी परंपरा को समय के अनुसार ढाला न कि उसे खत्म किया।  क्योंकि हमें पता है गणेशोत्सव सिर्फ मूर्ति पूजा की औपचारिकता मात्र नहीं है बल्कि यह समाज के एकीकरण का माध्यम है।  उसमें नई ऊर्जा और ऊष्मा संचारित करने का माध्यम है यह एक धरोहर भी है जो हमें याद दिलाती है कि हमारी स्वतंत्रता प्राप्ति में इन दुर्गा गणेश पंडालों का क्या योगदान है। क्या कुछ ऐसा ही विचार मृत्युभोज को लेकर नहीं किया जा सकता? मेरे बिंदुवार कुछ प्रश्न है अगर अच्छा लगे तो विचार करें। 

क्या मृत्यु भोज में ५६ भोग परोसे जाते हैं? क्योंकि इसे कुरीति कहने वाले अक्सर इसमें बेहया खर्च को किसी भी व्यक्ति पर बेबजह पड़ने वाला बोझ कहते हैं। 
क्या पिंडदान में ब्राह्मण दक्षिणा में आप से लाख दो लाख रुपए ले लेता है?

क्योंकि इस पर कटाक्ष करने वाले कहीं न कहीं किसी ब्राम्हण फोबिया के शिकार भी लगते हैं उन्हें दिक्कत मृत्यु भोज से नहीं बल्कि एक ब्राम्हण को उसमें मिलने वाली दक्षिणा से है।  आप ब्राह्मण को दक्षिणा में १५१/या २०१/रुपए देते हो शायद इससे ज्यादा तो नही। समर्थवान हैं तो बात अलग है वह ५५१/भी दे देते हैं तो कोई ११००/भी और हमारे यहां तो कहा ही गया है “समरथ को नहीं दोष गुसाईं” वह सामर्थ्यवान है जितनी उसकी इच्छा वह दान दक्षिणा कर सकता है। 

क्या आपके घर आये अतिथि जो भारत की परंपरा “अतिथि देवो भवः” के अनुसार एक देवता है क्या हम उसे भोजन भी नही करा सकते?
क्या मृत्यु भोज में ऐसा कोई प्रावधान है कि सारे ग्राम या नगर या पूरे कुटुंब को भोजन पर आमंत्रित किया जाए या मोहल्ले भर का भंडारा किया जाए?

शायद नही, यह आप अपने स्टेस्टस के लिए भीड़ एकत्रित करते हो। जबकि हम तो बचपन से किसी भी मंगल या धार्मिक कार्य के लिए सुनते है “जितनी शक्ति उतनी भक्ति”। 
क्या मृत्यु भोज में आया हुआ अतिथि बेरोजगार है? क्या वह आपके भोज से ही उसका पालन पोषण होता है?

जबकि इसका दूजा पहलू यह है कि अपके घर आया हुआ अतिथि अपना आर्थिक नुकसान भी करता है मसलन जिस दिन वह आपके घर आपके दुख में समलित होता है उस दिन उसका रोजगार भी चला जाता है आपके एक थाली भोजन के लिए वह अपना कम से कम अपने एक दिन का आर्थिक नुकसान उठाता ही है कोई भी इंसान आपकी एक थाली के लिए आपके घर नहीं जाता बल्कि वह आपसे अपनी संवेदना जताने आपका सम्बल बनने के लिए आपका दुःख बांटने के उद्देश्य से आपके घर आता है। 

आप वर्ष भर में कितने अवसरों पर अपने  स्वजनों  या अपने मित्रों के साथ एक साथ मिलते है?   

शायद सुख के अवसर शादी विवाह या दुख के अवसर पर रोज तो नही अर्थात तेरहवीं मात्र भोजन जीमने के लिए नहीं बनाया गया था अपितु वह हमारे समाज जनों, रिश्तेदारों, मोहल्ला, पड़ोस के एकत्रीकरण का भी माध्यम था और है। हिन्दू धर्म के अनुसार आत्मा अनित्य है, अमर है, वह देह त्याग के बाद भी अपने स्वजनों के पिंडदान क्रिया को देखती है।  उसके अंतिम भोज में समलित व्यक्तियो को देखकर वह हर्षित होती है।  इस अनुसार फिर आपको तय करना होता है कि आत्मा को दुख देना है या हर्षित करना है। आधुनिकता के चक्कर मे आप भाषण देते हो ये बंद करो वो बंद करो।  पर आप खुद परिजनों की याद में सिर्फ समाज मे आधुनिक दिखने के लिये कभी गरीबो को भोजन कराते हो। कभी कपड़े बांटते हो मसलन आप येन केन प्रकरेण धन जरूर खर्च करते हो। आप खर्च तो करते हो आधुनिकता है पर स्वजनों के मिलन को कुरीति कहते हो यह तो वही बात है हम करें तो सही अन्य करे तो “गलत। 

क्या आप समाज की अर्थव्यवस्था को गति नही देते?

जबकि कभी गौर करेंगे तो पाएंगे कि हमारी हर तीज त्यौहार के केंद्र में हमारी अर्थव्यवस्था ही है।  तेरहवीं करके आप सो व्यक्तियो को बुलाते है और उसमें छह हजार खर्च होते है।  वह छह हजार भी कितनी जगह डिस्ट्रीब्यूट होता है कितने घरों में पुण्य बन कर जाते है।  मसलन हलवाई, उसके सहायक, किराना दुकानदार, टेंट वाला, गैस वाला, पंडित, कपड़े वाला, फल विक्रेता, सफाई कर्मी इत्यादि क्या इससे इतने लोगों को प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रोजगार नहीं मिलता। 

आपके घर आये अथिति सम्मान स्वरूप आपको वस्त्र, फल या कुछ भेंट लेकर आते है। क्या उनके वस्त्र खरीदने से या फल खरीदने से अर्थव्यवस्था में अंश मात्र भी उतार चढ़ाव नही होता?  आपके रिश्तेदार मसलन सो km दूर से आये तो उनके परिवहन में खर्च ओर रास्ते का व्यय क्या अर्थव्यवस्था में सहायक नही है?  

एक ओर बात बात में ढहती अर्थव्यवस्था का विधवा प्रलाप है। दूजी ओर अर्थव्यवस्था को गति देने वाले कार्यों को आधुनिकता के नाम पर बंद करना निर्णय आपको करना है।  आवश्यक नहीं कि आप खूब सारा रायता फैलाएं।  जैसा कि पहले ही हमारे पूर्वज सिखा गए हैं धार्मिक मामलों में “जितनी शक्ति-उतनी भक्ति” ही कि जाए।  कोई व्यवस्था पर संशय हो तो गणेशोत्सव की तरह उसमें संसोधन कीजिए न कि उसका परित्याग कीजिए। याद रखिए और ध्यान दीजिए आज आपकी हर परंपरा रीति रिवाज में कुरीति खोजने का ट्रेंड चल रहा है। एक भेड़ों की फौज निकल पड़ी है जिसे जमीनी हकीकत का कोई ज्ञान नहीं है।  जिसे आपकी रीति रिवाज परंपराओं और उसके सामाजिक प्रभाव का कोई ज्ञान नहीं है।  बस किसी अतिपढ़, कुबुद्धिजीवी ने उसे एक लच्छेदार भाषण दे दिया और वो भीड़ उसके इशारों पर चल पड़ती है। आपके रीति रिवाज, परंपराएं, तीज-त्यौहार आपकी अर्थव्यवस्था का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। एक ओर बिगड़ती वैश्विक अर्थव्यवस्था है दूजी तरफ एक सैकड़ों वर्षों की स्थापित अर्थव्यवस्था, जिसे हम स्वयं ढहाने का प्रयास कर रहे हैं।  उनके ढहने से सिर्फ समाज नहीं बल्कि आपका राष्ट्र भी ढह जाएगा। 


जय श्री राम।।
हर हर महादेव।।