मैं क्या चीज़ हूँ!

अगर आप सोचते हैं कि भारत की आत्मा धर्म में बसती है ..तॊ आप ग़लत हैं!, वह अध्यात्म , तप और त्याग में भी नही बसती। वह उत्सव, तीज , त्योहारों में भी नही बसती। वह सिर्फ़ एक ही चीज़ में बसती है ..और वह है “दिखावा “।

इसे आप ध्यान से समझ लें। पूरे भारत की आत्मा में जो तत्व गहरे समाया है, वह ‘सत्य’ या ‘परमात्मा’ नही है। वह है – “मैं क्या चीज़ हूँ

यहां हर व्यक्ति इस जुगत लगा है कि, किसी भी तरह से, किसी भी क्षेत्र में सफ़ल होकर, दूसरों को बता सके कि “देख , मैं क्या चीज हूँ” 
यही दिखाने के लिए वह पैसा कमा रहा हैं, यही दिखाने के लिए वह नेतागिरी कर रहा है, यही दिखाने के लिए वह अधिकारी बना है, कलाकर बना है।, यही दिखाने के लिऐ वह कविता कर रहा है, लिख रहा है।

यह महज़ जीविकोपार्जन का मामला नही है।, यह नुमाईश का मामला है।, अपनी हैसियत के प्रदर्शन का मामला है।, यही दिखाने के लिए वह नाच रहा है, गा रहा है या अन्य उद्यम कर रहा है। 
जब तक ये “दिखावावाद” जिंदा हैं भारत में, आप भूल जाईये कि यहां कोई उत्थान हो सकता है। न साम्यवाद, न समाजवाद, न राष्ट्रवाद अभी सौ वर्षों तक यहां जो “वाद” चलेंगे वो हैं –
“अहंवाद”, “मैं वाद”, “स्वार्थवाद”, “परिवारवाद”, “लूटखसोट वाद” और जब तक ये “वाद” हैं , तब तक किसी भी तरह का उत्थान भारत में परम असंभवना है। वह इसलिए , क्योंकि यहां खून के एक खरबवें हिस्से में भी जो विष भरा है वह है “”वी.आई.पी.वाद”, “वर्गभेद वाद” का विष। यहां आलम ये है कि एक स्कूल, एक क्लास में पढ़े बालसखा भी ग्रुपों में बँट जाते हैं। जो सफ़ल हैं वो स्वयं को एलीट मानने लगते हैं और अन्यों को दोयम। भारत में शायद ही ऐसा अधिकारी देखने मिलेगा जो अपने मातहतों को हिक़ारत से ना देखता हो। शायद ही ऐसे लोग मिलेंगे जो घर में काम करने वाली बाई, मजदूर, प्लम्बर , इलेक्ट्रिशियन या स्वीपर को तुच्छता से ना देखते हों। शायद ही ऐसा नेता मिलेगा जिसके आस-पास 4-6 लोग न मँडराते हों और वह अपने आप को आलमगीर न समझता हो। फ्लाइट से कहीं जाने वाला व्यक्ति जब तक 10-20 बार अनेक लोगों के बीच ये ना बता ले कि “मेरी कल सुबह 10 बजे की फ्लाइट है” या, “मैं कल 5 बजे की फ्लाइट से वापिस लौटा।” उसे लगता हैं कि मेरा आना जाना सफ़ल नही हुआ। छुटभैये बिल्डर ज़रा सा पैसा आते ही मोटी मोटी सोने की चेन और कड़ा पहनकर अपने सफ़ल होने की भौंडी नुमाईश करते मिलेंगे। नव धनाड्य हर साल कारें बदल कर अपने अमीर होने की पुनर्रुदघोषणा करते हैं। कुल मिलाकर जिस एक भाव से पूरा भारतवर्ष आविष्ट हैं वह है – “देख, मैं क्या हूँ , और तू क्या है ?”

यह दिखावावाद ही वह भूमि है जिस पर लहलहा रही हैं भ्रष्टाचार की फसलें, वर्ग भेद के पौधे। और इन पर भिनभिना रहे हैं उच्चता और निम्नतावाद के कीड़े। इसी के कारण सब रोगी हैं, तनाव ग्रस्त हैं, कुंठित हैं, मनोविषादी हैं। यही कारण है कि भारत डायबिटीज, हृदयरोग, ब्लड प्रेशर, कैंसर जैसी सभी प्रमुख बीमारियों का हब बना हुआ है। क्योंकि कुंठा ग्रस्त मन अंततः शरीर को भी रुग्ण बना देता है। सब साइकोसोमेटिक है। और इन बीमारियों के निवारणार्थ गली-गली में उग रहे हैं धर्म गुरु, ज्योतिषी, आयुर्वेदा, योगा के स्वयं-भू , कमअक़्ल, अनधिकृत विद्वान जो आपको चंगाई की गोली पकड़ा कर अपना व्यापार चमका रहे हैं। पूरा भारत भरा पड़ा है जग्गी-फग्गी , श्री-फ्री, आबाओं-बाबाओं, कथाओं, शिफ़ाओं और चंगाई सभाओं से। कहीं सुबह गार्डन में नकली हास्यासन हों रहे है, तॊ कहीं जिन्नाद उतारे जा रहे हैं।उधर पति पैसा कमाने की मशीन हुआ जा रहा है इधर पत्नि नकली जीवन की घुटन और नैराश्य से तिल तिल मर रही है। जिस दिन ये श्रेष्ठता साबित करने का जिन्न उतर जाएगा भारत के सिर से, उस दिन सब दुरुस्त होने लगेगा। शरीर भी, स्वास्थ्य भी, धर्म भी , अध्यात्म भी, नकली बाबा, हकीम, वैद्य और डाक्टर भी। मगर इस नुमायशी आदमी के रहते साम्यवाद भी एक सपना है और राष्ट्रवाद भी दूर की कौड़ी है। क्योंकि जब “मैं” मिटता है और “दूसरा” दिखता है तब साम्यवाद भी संभावना है। जब “मैं” मिटता है और “राष्ट्र” दिखता है तब राष्ट्रवाद भी संभावना है। लेकिन जब तक ये एलीट होने की गन्दगी भरी है दिमाग़ में और उच्चता-निम्नता की अपशिष्ट बह रही है रगों में तब तक इस देश में कोई संभावना नही है।

बचपन में एक कविता पढ़ी थी स्कूल में:

“दो आदमी एक कमरे में, कमरा घर में,

घर मुहल्ले में, मुहल्ला शहर में,

शहर प्रदेश में, प्रदेश देश में,

देश पृथ्वी पर, पृथ्वी अनगिनत नक्षत्रों पर,

ऐसे बढ़ते हुए वो बात ब्रहांड तक जाती थी।

इस ब्रहांड में रेत के एक कण के खरबवें हिस्से से भी कम हैसियत है पृथ्वी की। हम-आपकी तॊ बिसात ही क्या? जब तक इस बोध से अनुप्राणित ना होंगे प्राण तब तक कोई संभावना नही है।हाथ में सोने का कड़ा पहनने से कोई एलीट नही हॊता। एलीट हॊता है आदमी, चेतना के उत्थान से। एलीट हॊता है वो, जिसकी आंखें सौम्य हों। जिसका ललाट भव्य हो, जिसकी भावना उद्दात हो, जिसके हृदय में प्रेम हो। मनुष्य एलीट हॊता है चेतना के विस्तार से, वस्तुओं के संग्रहण से नही। ब्रह्मआत्म ऐक्य बोध से, दिखावे से नही। ये पूरब की उद्घोषणा थी। मगर अब हम उस ऊंचाई से बहुत गहरी गर्त में आ गिरे हैं।