ऑर्गैनिक खेती से 200 किस्म के चावल उगाना संभव हैं

21वीं सदी और साल 2020, आजादी के 73 साल बाद जब देश की युवा पीढ़ी मोबाइल और वीडियो गेम में गर्दन झुकाए जी रही है। आधुनिकता का वह युग जो आने वाले एक-एक पल में टेक्नोलॉजी और रोबोट लाइफस्टाइल की संभावना दिखाता है। जब हमारे देश की जनेरेशन दो मिनट की मैगी जैसे फास्ट फूड पर पलने को मजबूर हो। तो ऐसे में क्या कोई सोच सकता है कि कॉर्पोरेट सेक्टर की एक हाई प्रोफाइल नौकरी छोड़ कोई शख्स धोती कुर्ता पहनने वाला फुल टाइम किसान बन जाए? वह भी कोई ऐसा-वैसा किसान नहीं बल्कि जींस-टीशर्ट जैसे विदेशी परिधानों को पूरी तरह त्याग स्वदेशी खादी कपड़े पहनने वाला सच्चा देशभक्त किसान। ‘नई सुबेह’ आज एक ऐसे ही अनोखे किसान की कहानी लेकर आया है।

यह कहानी है ग्राफिक डिजाइनर से किसान बने बप्पा राव अथोटा की। वह आंध्र प्रदेश में चावल की ऑर्गैनिक खेती  में लगातार नए-नए प्रयोग कर रहे हैं। आंध्र प्रदेश के तटीय इलाके में चावल मुख्य आहार है। यहाँ किसान हर साल उत्पादन बढ़ाने के लिए ज्यादा से ज्यादा कीटनाशक और यूरिया के इस्तेमाल पर निर्भर हो चुके थे। इस कारण क्षेत्र में स्वास्थ्य समस्याएं भी काफी बढ़ रही थीं।तब क्षेत्र में लोगों को युवा किसान बप्पा राव के बारे में पता चला जो बिना किसी प्रकार के रसायनों के प्रयोग से धान उगा रहे हैं। यह नौजवान किसान देश में पारंपरिक तरीकों से खेती के तरीकों को ट्रेंड में ले आया है। राव ज्यादा उत्पादन करने के लालच में न पड़ते हुए मिट्टी को समृद्ध बनाने और पौष्टिक अनाज उगाने में ज्यादा भरोसा रखते हैं। चावल के अलावा राव, ज्वार, गेंहू और सरसों की खेती भी करते हैं।छोटे से गांव अथोटा में चावल की ऑर्गैनिक खेती से बप्पा राव ने किसानों में एक नई उम्मीद जगाई। राव ने यह साबित कर दिया है कि भारत की मिट्टी आज भी सोना उगाने का माद्दा रखती है। ऑर्गैनिक खेती से लाखों का टर्न ओवर और चावल की करीब 200 किस्में उगाने वाले बप्पा राव सैकड़ों किसानों की प्रेरणा हैं। वह अपने नाम के साथ गांव का नाम ‘अथोटा’ सरनेम के तौर पर लगाते हैं।

बप्पा राव (Bappa Rao) ने अपनी जीवन यात्रा और किसान बनने के अपने जुनून को हमसे साझा किया।

बप्पा राव बताते हैं, खेती किसानी उन्हें विरासत में मिली है। उनके दादा और पिता किसान रहे हैं। पर अपनी शुरुआती जिंदगी में उन्होंने पढ़ाई के लिए इंजीनियरिंग को चुना। इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी करने के बाद वह हैदराबाद की एक कार्पोरेट कंपनी में ग्राफिक डिजाइनर के पद पर काम कर रहे थे। सब ठीक चल रहा था लेकिन साल 2010 में उनकी दादी की तबियत काफी खराब हो गई। उन्हें कैंसर था और डॉक्टरों ने इस कैंसर की सबसे बड़ी वजह खेती में इस्तेमाल हो रहे केमिकल और पेस्टिसाइड को बताया। राव दादी से बहुत ज्यादा जुड़े हुए थे। उन्हें दादी की बीमारी और मौत का गहरा सदमा पहुंचा। इतना कि उन्होंने देश के लिए शुद्ध, अन्न, जल और हवा का चिंतन करना शुरू कर दिया। इस घटना के बाद राव ने ऑर्गैनिक खेती में उतरने की ठान ली।

राव कहते हैं,  “मैं दादी के बेहद करीब था, कैंसर से दादी की मौत हो गई, मेरे लिए वह एक गहरा सदमा था। डॉक्टर ने बड़ी नफरत भरी नजरों से हमें देखा और बताया खाने में केमिकल, पेस्टिसाइड के कारण कैंसर बढ़ रहा है। हम किसान परिवार से हैं इसलिए डॉक्टर का यह हमला सीधा हम पर ही था। मुझे अहसास हुआ शायद किसान होकर हम अपने हाथों ही ज़हर उगाकर खा रहे हैं। उस समय मेरी पत्नी प्रेग्नेंट थीं। अपने बच्चे के भविष्य के लिए शुद्ध भोजन और हवा, इन दो जरूरतों ने मुझे बेचैन कर दिया!”

इसके अलावा राव के लिए दूसरी बड़ी प्रेरणा भारतीय सामाजिक कार्यकर्ता, आयुर्वेद के प्रवर्तक और स्वदेशी के बड़े हिमायती राजीव दीक्षित के विचार भी रहे हैं। ऑर्गैनिक खेती के क्षेत्र में आने के लिए वह प्राकृतिक कृषि के लिए देश के सुप्रसिद्ध चिंतक, लेखक और किसान सुभाष पालेकर से काफी प्रभावित हुए। यूट्यूब पर इनके वीडियोज देख उन्होंने स्वदेशी और ऑर्गैनिक फॉर्मिंग को अपना लक्ष्य बना लिया और जींस-टीशर्ट और विदेशी वस्त्र त्याग दिए। राव ने परिवार के लिए ही नहीं बल्कि देश को शुद्ध अनाज और वातावरण देने की सोच के कारण खेती को चुना। देश के भविष्य की चिंता में राव का नौकरी और शहर से मन उचटने लगा। राव के लिए यह एक ट्रिगर वॉर्निंग थी लेकिन आज के समय में कंप्यूटर-लैपटॉप छोड़ हल और ट्रैक्टर चलाने को करियर बनाना उनके लिए आसान नहीं रहा। नौकरी छोड़ने के उनके फैसले का लोगों ने मजाक उड़ाया। यहां तक कि पिता और बाकी परिवार भी उनके खिलाफ हो गए। पिता नहीं चाहते थे बेटा देसी-देहाती ही रह जाए।

राव को खेती में उतरने के फैसले पर आलोचनाओं का सामना करना पड़ा लेकिन उनके दिमाग में साधारण खेती नहीं थी बल्कि पूर्णत: स्वदेशी और इम्यूनिटी बढ़ाने वाले अनाज उगाने के इनोवेटिव आइडियाज़ भी थे। साल 2016 में राव नौकरी छोड़ गांव लौट आये और खेती करने लगे। रास्ते में आने वाली मुश्किलों पर बात करके हुए राव ने बताया, पहले साल में, बहुत सारी समस्याओं का सामना करना पड़ा। उनके परिवार या गांव में किसी को भी अर्गैनिक फॉर्मिंग के बारे में कुछ भी नहीं पता था। यहां तक कि एग्रीकल्चर में बीएससी ग्रेजुएट दोस्त उन्हें बिना रासायनिक उर्वरकों या कीटनाशकों के खेती करने के बारे में सामान्य जानकारी भी नहीं दे पाए। उन्होंने कई तरह के इनोवेटिव किसानों से मुलाकात करके खुद ही अर्गैनिक फॉर्मिंग पर रिसर्च किया। इसके बाद राव ने अपने खेत की जमीन पर धान और अन्य खाद्य फसलों की अर्गैनिक फॉर्मिंग शुरू कर दी।

इस पूरे प्रोसेस में उन्हें मालूम पड़ा कि देश के किसानों को यूरिया, उर्वरक, कीटनाशक और रासायनों का इस्तेमाल इसलिए करना पड़ता है क्योंकि वो विदेशी फसलों को उगा रहे हैं। लोग भूल गए हैं भारत किसानों का देश हैं। देश की पारंपरिक भारतीय कृषि पद्धतियां शुद्ध भोजन देने वाली हैं। बप्पा राव के मुताबिक भारत में 1 लाख  10, 000 से ज्यादा चावल की देसी किस्में पहले से ही मौजूद हैं, वहीं मिट्टी भी काफी उपजाऊ है। मिट्टी को वास्तव में कई तरह के कीटनाशकों की जरूरत होती ही नहीं है। उनका मानना है जमीन में मौजूद कीड़े किसान के सबसे अच्छे दोस्त हैं। केंचुओं ने न केवल उनकी फसलों को बेहतर बनाने में मदद की बल्कि जल स्तर को भी उठाया है।

ऑर्गेनिक फार्मिंग की शिफ्टिंग के पहले साल में उन्होंने अपनी आम उपज का केवल आधा फायदा हुआ। अगले साल उसकी उपज पिछली उपज से 80% तक पहुंच गई। तीसरे साल में वह अपनी सामान्य उपज तक पहुंच गए और चौथे साल में वह उर्वरकों और कीटनाशकों के उपयोग से होने वाले उत्पादन के आंकड़ों को पार करने को तैयार थे। इसका मूल कारण स्वदेशी बीजों का उपयोग भी था। अपनी रिसर्च में उन्होंने महसूस किया कि पारंपरिक भारतीय कृषि पद्धतियों में हमें अपनी अगली फसल के मौसम के लिए सर्वोत्तम बीजों को स्टोर करने की जरूरत है। इससे हम केमिकल फ्री खेती करने में कामयाब रहेंगे।

अर्गैनिक फॉर्मिंग में राव ने नया अध्याय जोड़ दिया। उन्होंने ‘बीज बैंक’ बनाने का सिस्टम शुरू किया। उन्होंने कई किस्म के चावल उगाने के नए-नए प्रयोग में हाथ आजमाए। जहां देश में लोगों को White-Brown राइस के बारे में ही पता है वहां राव ने अब तक 280 से ज्यादा वैरायटी के चावल उगाए हैं। वह काला चावल ( Black Rice)  भी उगाते हैं जो इम्यूनिटी बढ़ाने में सबसे ज्यादा कारगर है। आज कोरोना महामारी (Corona) के समय अर्गैनिक ‘ब्लैक राइस’ की डिमांड बहुत ज्यादा है। यह इम्यूनिटी बढ़ाने से लेकर बेहतर स्वास्थ्य के लिए किसी रामबाण औषधि से कम नहीं है। यह सब बप्पा राव ने ऑर्गैनिक फॉर्मिंग तकनीकि से ही कर दिखाया है। इसके लिए बप्पा राव अथोटा ने ‘वन विलेज वन सीड (One Village One Seed)’ की नींव रखी। इसका मतलब है शुद्ध स्वदेशी ‘बीज बैंक’ भंडार।

उनका मानना है कि खेती में बीज बेहद महत्वपूर्ण हैं और ये हाई प्रोटीन, स्टार्च और तेल भंडार के स्रोत हैं। पौधे के विकास और बढ़त में अच्छी क्वालिटी के बीज का बड़ा योगदान रहता है। ये भंडार दुनिया के बड़े हिस्से के लिए कई अनाज और फलियां प्रमुख खाद्य स्रोत बनाते हैं। बीज की गुणवत्ता न केवल फसल के लिए बल्कि एक बड़ी आबादी के लिए स्वास्थ्य भी निर्धारित करती है। बप्पा राव का सपना हर गांव या मंडल के लिए देसी किस्मों की उप प्रजातियों की खोज करने में सक्षम होना है। वह इसे “वन विलेज वन सीड” कहते हैं। पर अफसोस की बात यह है कि देश के पहले अर्गैनिक फॉर्मिंग बीज बैंक भंडार के लिए उन्हें राज्य की सरकार की ओर से कोई मदद नहीं मिली। हालांकि इसके लिए उन्होंने कोशिश भी की थी। राव ने किसानों की समस्या और कम मुनाफे का हल भी खोजा है-

 उन्होंने फसलों के रॉ मटैरियल (Raw Material) यानी अनाज को सीधा खेत से काटकर न बेचने का फैसला किया। रॉ मैटेरियल यानी धान, बाजार में काफी सस्ता बिकता है। राव ने देखा पूरे साल खेत में खून-पसीना बहाने वाले किसान को फसल बिकने के समय काफी नुकसान झेलना पड़ता है। बचा-खुचा दलाल (मिडिएटर) लोग रिश्वत में खा जाते हैं। इसके उलट बाजार में चावल की अच्छी खासी कीमत मिलती है जिससे किसानों की हालात में सुधार हो सकता है। आज राव को प्रति एकड़ 1 लाख रूपये का मुनाफा होता है लेकिन उनके पास जमीन का छोटा हिस्सा ही है। ऐसे में मुनाफे का 32 फीसदी हिस्सा उन्हें दूसरे जमीन मालिकों को देना होता है।

भविष्य में अपने लक्ष्य को लेकर पूछे गए सवाल पर बप्पा राव कहते हैं कि,  वो साल के 365 दिन के लिए चावल की 365 किस्में देश को देना चाहते हैं। इसकी शुरुआत उन्होंने अपने पड़ोस के एक मंदिर में बनने वाले प्रसाद से कर दी है। मंदिर में हर दिन अलग-अलग किस्म के चावल का प्रसाद बनाया जाता है। वहीं श्रद्धालुओं से मंदिर में पैसे या जेवर दान करने की बजाय अनाज दान करने की अपील की जाती है। इस मुहिम से लोग भगवान का आशीर्वाद मिलने के साथ गरीबों को भुखमरी से बचा सकते हैं।

राव ने देश के किसानों को संदेश भी दिया। वह कहते  हैं, “कोरोना महामारी के समय हमें समझ आ गया कि शुद्ध खाने और इम्यूनिटी बढ़ाने वाले अनाज की कितनी जरूरत है। केमिकल वाले अनाज, खाद्य, सब्जियों और फलों से हम आने वाली पीढ़ियों को अपंग बनाने की तैयारियां कर रहे हैं। हम उन्हें दवाइयों पर निर्भर रहने वाली जिंदगी दे रहे हैं। इसलिए रसायनों का खेती में कम से कम इस्तेमाल करें और अर्गैनिक फॉर्मिंग से जुड़े। इससे वातावरण शुद्ध रहेगा और शुद्ध भोजन भी मिलेगा। ग्लोबल वॉर्मिंग कम होगी तो हम बेहतर जिंदगी जिएंगे। याद रखिए- when you are healthy you are wealthy!”

देश के भविष्य को उज्जवल बनाने में जी जान से जुटे इस स्वदेशी किसान को राष्ट्रीय स्तर पर कोई पहचान नहीं मिली है। उन्हें राज्य सरकार द्वारा भी किसी सम्मान से नहीं नवाजा गया। बप्पा राव अथोटा को इस बात का अफसोस भी नहीं वह अपना कर्म किए जाने में भरोसा रखते हैं। पिछले समय में सिर्फ खेती में मशगूल रहने के बाद अब वह एक किसान समुदाय शुरू करने की योजना बना रहे हैं। जिससे अर्गैनिक फॉर्मिंग, बीज भंडारण और खेती में नए-नए प्रयोग पर खुलकर चर्चा की जा सके। बप्पा राव एक ऐसी शख्सियत हैं जिनके विचार और सादगी किसी का भी मन मोह लेती है। जिसने देश की माटी में सोना उगाने की ठान ली और अपने सपनों को साकार करके ही दम लिया। देश के लिए उनकी निष्ठा, बलिदान और लगन सैकड़ों लोगों की प्रेरणा का स्त्रोत है। युवा स्वदेशी किसान बप्पा राव को हमारा सैल्यूट है।