मशरूम की खेती से चमकाई किस्मत

सुशीला, पश्चिम बंगाल के उत्तर दिनाजपुर जिले में चोपड़ा ब्लाॉक के गोलामीगाच की रहने वाली हैं। दिनाजपुर जिले की भौगोलिक स्थिति इस तरह है कि यह बांग्लादेश और दार्जिलिंग से लगा हुआ है। यह एक गरीब व पिछड़ा क्षेत्र है, जहाँ लोगों के पास रोजगार के ज्यादा साधन उपलब्ध नहीं है। दार्जिलिंग से लगे होने के कारण यहाँ के ज्यादातर लोग चाय बागान में दिहाड़ी मज़दूर के रूप में काम करते हैं। सुशीला (Sushila Tudu) भी कई लोगों की तरह दिहाड़ी मज़दूर के रूप में चाय बागान में काम करती थीं। पति भी चाय बागान में ड्राइवर थे और ट्रांसपोर्टिंग का काम करते। इन दोनों पति-पत्नी के लिए चाय के बागान में काम करना ही एकमात्र विकल्प था क्योंकि इनके पास न ही खेती के लिए ज़मीन थी और न ही अन्य कोई रोज़गार का साधन। लेकिन सुशीला हमेशा अपने भविष्य के प्रति चिंतित रहती थीं क्योंकि चाय बागान में केवल एक विशेष सीज़न में ही काम मिलता था। उसके बाद तो खाली बैठना पड़ता था। जब भी सुशीला अपने 2 बच्चों को देखतीं तो यही सोचतीं कि इनके बेहतर भविष्य के लिए वह क्या कर सकती हैं? आखिर कब तक ऐसा चलता रहेगा?

जब डॉ. अंजलि ने ली सुशीला के जीवन में एंट्री

डॉ. अंजली शर्मा, उत्तर दिनाजपुर कृषि विज्ञान केन्द्र के होम साइंस विभाग में कार्यरत हैं। जोकि सुशीला के घर से ज्यादा दूर नहीं हैं। यह उन दिनों की बात है जब वह एक ख़ास वजह से परेशान थीं। दरअसल डॉ. अंजली ने दिनाजपुर में ही शिशु पोषण कार्यक्रम के दौरान यह पाया था कि चाय बागान में काम करने वाली महिलाएँ सुबह से लेकर शाम तक लगातार काम करती हैं। इस दौरान घर में छोटे बच्चों का पालन पोषण करने वाला कोई नहीं होता। उन महिलाओं के पास इतना समय ही नहीं होता कि वो अपने बच्चों के खान-पान पर ध्यान दे सकें। डॉ. अंजली हमेशा मन ही मन यह सोचतीं कि इन महिलाओं के पास बागों में मजदूरी से हटकर कुछ ऐसा कार्य होना चाहिए जो ये अपने घर के आस-पास कर सकें और अपने बच्चों को भी समय दे सकें।

एक तरफ सुशीला की परेशानियाँ तो दूसरी तरफ डॉ. अजंली की महिलाओं के प्रति बढ़ती चिंता। कहा गया है, ‘जहाँ चाह, वहाँ राह’ और इसी तरह डॉ. अंजली की चाह सुशीला के जीवन में एक नई राह की तरह उभरी। इसी बीच कृषि विज्ञान केन्द्र में मशरूम कल्टीवेशन का कार्य शुरू हुआ। डॉ. अंजली और उनके साथियों ने यह तय किया कि महिलाओं के समूह बनाकर उनको भी इस कार्य से जोड़ा जाना चाहिए। इसके लिए कृषि विज्ञान केन्द्र में प्रशिक्षण कार्यक्रम का आयोजन किया गया। सुशीला ने एक अखबार में  इस प्रशिक्षण कार्यक्रम का इश्तेहार देखा। जैसे ही सुशीला ने यह पढ़ा उन्होनें पूरा मन बना लिया कि वो इस प्रशिक्षण में ज़रूर शामिल होंगी। डॉ. अंजली सुशीला के बारे में बताती हैं कि सुशीला से वह इस प्रशिक्षण कार्यक्रम के दौरान ही काफी प्रभावित हो गई थीं। सुशीला ने इस पूरे प्रशिक्षण को काफी गंभीरता से लिया। वह बाकियों से एकदम अलग थीं। हमेशा नई-नई चीजें सीखने को तैयार रहने वाली सुशीला जो भी करतीं, पूरे मन से करतीं।

डॉ. अंजली कहती हैं, “प्रशिक्षण लेने तो बहुत से लोग आते हैं परंतु प्रशिक्षण के बाद वो प्रशिक्षण में बताई बातों को अमल में नही ला पाते या उस अनुसार कार्य नहीं कर पाते हैं। लेकिन सुशीला ने प्रशिक्षण के बाद पूरी गंभीरता से काम किया और सबसे अच्छी बात यह थी कि वह कभी भी किसी भी चीज के लिए हम पर निर्भर नहीं रही। एक बार उसे बता दो कि कौन सी चीज कहाँ मिलती है तो वह खुद उस चीज को लेने जाती।” आगे वह बताती हैं, “अक्सर लोग प्रशिक्षण के बाद यह उम्मीद रखते थे कि हम ही उन्हें सारी चीजें देंगे लेकिन सुशीला एक आदिवासी महिला होते हुए भी गोलामीगाच से सिलीगुड़ी जाकर सारा सामान खरीदती थीं। उन्होनें कभी किसी चीज की मांग नहीं की और न ही किसी चीज की शिकायत।”

मशरूम की खेती ने बदली सुशीला की ज़िंदगी

अंजलि बताती हैं, “सुशीला की समझदारी और कार्य के प्रति उनके समर्पण देखकर ही हमनें भारत सरकार द्वारा संचालित ट्राइबल सब प्लान के तहत उन्हें उन्हीं के घर पर मशरूम का एक यूनिट लगाकर दिया। जिसमें सुशीला ने काफी अच्छा कार्य किया।” सुशीला को जैसे-जैसे मुनाफा हुआ, मशरूम की खेती पर उनकी समझ पुख़्ता होती गई। उन्होनें स्वयं अपनी समझ-बूझ से एक और यूनिट लगा ली। इससे उन्हें यह फायदा हुआ कि वह लगातार मशरूम का उत्पादन करने लगीं। जब एक यूनिट के मशरूम बिक जाते तब तक दूसरी यूनिट के मशरूम बिक्री के लिए तैयार हो जाते। वहीं उत्पादन के बाद बिक्री का कार्य भी सुशीला ने स्वयं किया। इसके लिए वह दिनाजपुर और सिलीगुडी में लगने वाले स्थानीय हाट बाज़ार में जाकर स्वयं बिक्री करने लगीं। सुशीला के मशरूम काफी जल्दी बिक भी जाते क्योंकि सुशीला ने गुणवत्ता के साथ कोई समझौता नहीं किया। इस तरह सुशीला के मशरूम स्थानीय बाज़ार में काफी चर्चित हो गए। मशरूम की खेती में सुशीला की समझ और उनकी कार्यकुशलता को देखते हुए आगे चलकर मशरूम के मूल्य संवर्धन कार्य में भी उन्हें शामिल किया गया। जिसके अंतर्गत मशरूम स्पेंट से वर्मी कंपोस्ट खाद, मशरूम पाउडर, मशरूम चंक, बड़ी, पापड़ आदि बनाया जाता है। सुशीला मशरूम के साथ-साथ अन्य उत्पादों की भी बिक्री करने लगी हैं।

31 वर्षीय सुशीला से जब इस संदर्भ में बात की तो वह अपनी संताली भाषा में ‘अदीमोछ’ कहती हैं। मतलब अच्छा है। वह कहती हैं कि वह अब पहले से काफी खुश हैं। बातों ही बातों में उन्होनें बताया कि उन्हें ज्यादा हिंदी नहीं आती है। टीवी देखकर ही उन्होनें थोड़ी बहुत हिंदी सीखी है। संवाद करने में थोड़ी दिक्कत ज़रूर हुई लेकिन भावनाएँ किसी भाषा की मोहताज नहीं। सुशीला की बात, उनकी आवाज़ में हमें एक आत्मविश्वास और संतोष नज़र आया। वह बताती हैं कि चाय बागान में काम करते समय हर वक्त एक अनिश्चितता होती थी, वहीं मशरूम हर मौसम में होता है। जब वह मजदूर थीं तब लगातार काम करने के बावजूद उनके हाथ कुछ नहीं आता था परंतु अब वह आत्मनिर्भर हैं। अपनी मर्जी  से अपना काम कर सकती हैं। साथ ही अपनी आय बढ़ाना भी अब उनके हाथ में है। एक बार में 20-25 किलो मशरूम की बिक्री होती है। जिससे उनका गुजर-बसर आराम से होता है।

अब दूसरों को प्रशिक्षण दे रही हैं सुशीला

आज सुशीला FIG (Farmer Interest Group) की सदस्य हैं, साथ ही प्रगति मशरूम फार्मर ग्रुप जोकि एक सेल्फ हेल्प ग्रुप है, की अध्यक्ष और उत्तर दिनाजपुर कृषि विज्ञान केन्द्र में मास्टर ट्रेनर के रूप में अन्य लोगों को प्रशिक्षण भी दे रही हैं। चाय बागानों में काम करने वाली एक अदना सी महिला ने कृषि विज्ञान केन्द्र की सहायता से काम शुरू किया और आज उसी संस्थान में एक मास्टर ट्रेनर की हैसियत से प्रशिक्षण दे रही हैं जोकि वाकई अद्भुत है।

सुशीला ने वर्ष 2014 से कृषि विज्ञान केन्द्र के तकनीकि मार्गदर्शन में मशरूम के उत्पादन एवं इसके संवर्धन पर कार्य करना शुरू किया था। दिनाजपुर कृषि विज्ञान केन्द्र ने उन्हें वर्ष 2018 के महिन्द्रा समृद्धि कृषि युवा सम्मान के लिए नामांकित किया और 7 मार्च 2018 को सुशीला टुडू को भारत सरकार के तत्कालीन कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री, श्री राधामोहन सिंह के हाथों 2.11 लाख रूपए की प्रोत्साहन राशि, मोमेंटो एवं सर्टिफिकेट दिया गया। इस सम्मान के बाद से सुशीला काफी चर्चित हो गईं और काफी सारे लोग उनसे कृषि विज्ञान केन्द्र प्रशिक्षण लेने आने लगे। सुशीला का गाोलामीगाच में मिट्टी का घर था जिसमें सीधा भी नहीं खड़े हो सकते थे। पुरूस्कार में प्राप्त राशि से उन्होनें अपने घर बनवाने का कार्य शुरू कर दिया। आज सुशीला के पास गोलामीगाच का पहला पक्का घर है। स्वतंत्रता प्राप्ति के 73 वर्षों के बाद आज भी आदिवासी समुदाय विकास की मुख्यधारा से काफी कटा हुआ है। ऐसे में सुशीला का इस तरह उभर कर सामने आना एक उम्मीद जगाता है। इन सब में उत्तर दिनाजपूर कृषि विज्ञान केन्द्र की डॉ. अंजली शर्मा ने वास्तव में एक सार्थक भूमिका निभाई है। इसके लिए वह बधाई की पात्र हैं।