NAI SUBEH
मन की पवित्रता से ही निश्चित् लोक कल्याण सिद्ध होगा
ओ३म्
सम्पूर्ण वेद तथा अन्य धर्मग्रंथों के अनेक स्थलों में यह निर्देश किया गया है कि हमें अपने मन को शुद्ध-पवित्र बनाना चाहिये । हम प्रायः यह कहते हैं कि हमें समाज सुधार का कार्य करना है । हमें थोडा विचार करना चाहिए कि यह समाज-सुधार होता क्या है ? सबसे पहले तो हमें यह ध्यान में रखना आवश्यक है कि समाज भी बनता है तो व्यक्ति-व्यक्ति से ही । इसका तात्पर्य यह हुआ कि यदि हम समाज सुधार करना चाहते हैं तो पहले एक-एक व्यक्ति का सुधार करना आवश्यक है। व्यक्ति सुधार की प्रक्रिया यही है कि एक व्यक्ति के जीवन में उसका शारीरिक विकास, मानसिक विकास, बौद्धिक विकास और आत्मिक विकास अर्थात् सर्वांगीण विकास का होना अत्यन्त आवश्यक है । इस प्रकार जब एक-एक व्यक्ति का विकास होकर पूरे परिवार का और फिर पूरे समाज का विकास होता है ।
वेद का कथन है कि यदि वास्तविक उन्नति-प्रगति करना चाहते हैं तो अपने अन्दर स्थित सभी दुर्गुणों और दुर्विचारों, दुर्व्यसनों को दूर करना चाहिये जिससे हमारा मन शुद्ध-पवित्र हो जाये । इन्द्र अर्थात् जीवात्मा वृत्र अर्थात् पाप-भावनाओं को, दुर्विचारों को अपने आत्मबल से नष्ट करता है । जब व्यक्ति अपना सुधार कर लेता है तो समझना चाहिए कि वह समाज का ही सुधार कर रहा है क्योंकि वह भी समाज का ही एक अंग है । व्यक्ति रूप अंग से ही तो समाज रूपी अंगी का निर्माण होता है और एक अंग का सुधार अर्थात् आंशिक रूप में समाज का ही सुधार समझना चाहिए ।
हमारे द्वारा जो भी कार्य होता है, वह सबसे पहले मन में ही उत्पन्न होता है । मानसिक रूप में जब यह साकार रूप ले लेता उसके पश्चात् ही वह जाकर फिर वाणीगत रूप में साकारता को प्राप्त होता है और इससे आगे वह शारीरिक रूप में क्रियात्मक रूप में प्रकटीकरण होता है । “पवमानस्य ते वयं पवित्रं अभ्युन्दतः । सखित्वं आ वृणीमहे ।” वेद में ईश्वर से प्रार्थना की गयी है कि हे परमेश्वर ! हम अपने मन को सर्व प्रथम शुद्ध-पवित्र बनाते हुए फिर आगे जाकर आपकी आज्ञाओं का पालन रूप भक्ति करके अपने जीवन को विकसित करके प्रगति की और ले जाते हुए आपके साथ हम मित्रता को प्राप्त होना चाहते हैं । हम अपने जीवन को ईश्वर के गुण-कर्म-स्वभावों के अनुरूप ही बनाना चाहते हैं । ईश्वर सबसे महान है और कुछ आंशिक रूप में भी यदि हमारा जीवन ईश्वर के गुणों के अनुरूप बन पाए तो हमारा जीवन सार्थक माना जायेगा ।
जब व्यक्ति ईश्वरीय गुणों को धारण करेगा तो स्वाभाविक है कि वह बुरे कर्मों से अपने आप बच जाता है और उसके जीवन में दिव्यता, भव्यता का आगमन हो जाता है । उस व्यक्ति के व्यवहार को देख कर दुसरे लोग भी प्रेरित हो जाते हैं और उनके जीवन में भी परिवर्तन हो जाता है । इस प्रकार एक व्यक्ति के सुधार से सम्पूर्ण समाज का सुधार हो जाता है और यही प्रक्रिया ही वास्तविक प्रक्रिया है समाज सुधार या लोक कल्याण करने की, इसके अतिरिक्त जो भी सामाजिक कार्य किये जाते हैं वे सब उतने अधिक लाभकारी नहीं हैं । अतः यदि लोक कल्याण ही करना हो तो हमें स्वयं से ही प्रारम्भ करना चाहिये । हमें अपना सुधार, अपनी व्यक्तिगत उन्नति, आत्मिक उन्नति को ही प्राथमिकता देनी चाहिए, उसके पश्चात् दूसरों की उन्नति स्वयमेव होती जायेगी । इस लोक कल्याण रूप महान कार्य की शुरुवात हमें अपने मन से ही करनी चाहिए क्योंकि मन की पवित्रता से ही निश्चित् लोक कल्याण सिद्ध है ।
यदि एक व्यक्ति शान्त चित्त होकर केवल अपने सुधार में ही लगा हुआ है और अपने मन को शुद्ध-पवित्र बनाने में साधना रत है तो समझना चाहिए कि वह अपनी उन्नति के साथ-साथ लोक-कल्याण का कार्य ही कर रहा है ।
ओ३म् यं देवासोऽवथ वाजसातौ यं शूरसाता मरूतो हिते धने । प्रातर्यावाणं रथमिन्द्र सानसिमरिष्यन्तमा रूहेमा स्वस्तये ( ऋग्वेद १०|६३|१४)
अर्थ :- हे विद्वद् जनो! आप अन्नादि की प्राति में, वीर पुरूषों के करने योग्य संग्रामो में, हितकर धन को प्राप्त करने में, कला-कौशलसे रक्षा करते हो ।वैसे ही ब्रह्ममुर्हूत से ही वायु के समान गतिशील रथ-यान पर चढ़ कर हम परमैश्वर्य को प्राप्त करें ।